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भी व्रत है। परन्तु हजार रुपये अन्याय से नहीं ग्रहण (एकत्र) करूँगा ऐसा दृढ़ नियम करता है। परिग्रह का परिमाण किये बिना परिणाम निरन्तर अनेक वस्तुओं को प्राप्त करने में परिभ्रमण करते रहते हैं।
समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है, समस्त खोटे ध्यान परिग्रह से ही होते है, इसीलिये भगवान ने मूर्छा को परिग्रह कहा है। बाह्य परिग्रह तो अन्न-वस्त्र मात्र तथा रहने को कुटी मात्र नहीं होने पर भी यदि पर वस्तु में ममता ( वांछा) सहित है तो वह परिग्रही ही है।
परमागम में अंतरंग परिग्रह चौदह प्रकार का कहा है - मिथ्यात्व १, वेद २, राग ३, द्वेष ४, क्रोध ५, मान ६, माया ७, लोभ ८, हास्य ९, रति १०, अरति ११, शोक १२, भय १३ और जुगुप्सा १४।
मिथ्यात्व तो अनादिकाल से देहादि परद्रव्यों में ममत्वबुद्धि , एकत्वबुद्धिरूप परिणाम है। यह देह है वही मैं हूँ, जाति मैं हूँ, कुल मैं हूँ इत्यादि पर पुद्गलों में आत्मबुद्धि अनादि से ही लग रही है, वही बुद्धि मिथ्याबुद्धि है। रागद्वेषभाव, क्रोधादि भाव, मोहकर्म द्वारा किये गये भाव हैं। उन भावों में आत्मपने का संकल्प वही मिथ्यात्व परिग्रह है। काम से उत्पन्न विकार में लीन हो जाना, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य आदि छह नोकषायों में आत्मपने का भाव रखना वह अंतरंग परिग्रह है। जिसके अंतरंग परिग्रह का अभाव हुआ है। उसके बाह्य परिग्रह में ममता नहीं होती है। ___ परिग्रह से ममता होने के ही कारण समस्त प्रकार की अनीति करता है। परिग्रह की इच्छा से हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील भी सेवन करता है। परिग्रह के लिये मर जाता है, अन्य को मार देता है, महा क्रोध करता है। परिग्रह के प्रभाव से महान अभिमान करता है। परिग्रह के लिये अनेक मायाचार करता है। परिग्रह की ममता से महालोभ करता है। बहुत आरम्भ तथा बहुत कषाय का मूल परिग्रह ही है। जो सभी पापों से छूटना चाहता है, वह परिग्रह से विरक्त होता है। यही कार्तिकेय स्वामी कहते हैं :
को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिएहिं ण जियो को ण कसाएहिं संतत्तो ।।२८१।। सो ण वसो इत्थिजणे सो ण जियो इंदिएहिं मोहेण । सो ण य गिण्हदि गंथं अमंतर वाहिरं सव् ।।२८२।। जो लोहं णिहणित्ता सन्तोस रसायणेण सन्तुट्ठो। णिहणदि तिण्णा दुट्ठा मण्णण्तो विणस्ससरं सव्वं ।।३३९ ।। जो परिमाणं कुव्वदि धणधाण सुवण्ण खित्तमाईणं । उवओगं जाणता अणुव्वदं पंचमं तस्स ।।३४०।। का. अ.
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