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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
१०२]
अब स्वदार संतोषव्रत के पाँच अतिचार कहने वाला श्लोक कहते हैं:
अन्यविवाहाकरणानङ्गक्रीडा विटत्वविपुलतृषः ।
इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः ।।६०।। अर्थ :- अस्मर अर्थात् स्थूल ब्रह्मचर्यव्रत के पाँच अतिचार हैं, वे त्यागने योग्य हैं।
अपने पुत्र-पुत्री के सिवाय दूसरों के पुत्र-पुत्रियों के विवाह को रागी होकर कराना, वह अन्यविवाहकरण नाम का अतिचार है । १।
काम के निश्चिय अंग छोड़कर अन्य अंगों से क्रीड़ा करना वह अनंगक्रीड़ा नाम का अतिचार है । २।
भण्डिमारुप पुरुष को स्त्री का रुप-स्वांग आदि बनाकर मन-वचन-काय से कुशील की प्रवृत्ति करना तथा दूसरों से कराना वह विटत्व नाम का अतिचार है । ३।
कामसेवन की अतितृष्णा, तीव्रता, लालसा रखना वह विपुलतृषा नाम का अतिचार है ।४।
पतिरहित वेश्या आदि तथा अन्य व्यभिचारिणी स्त्रियों को इत्वरिका कहते है; उन व्यभिचारिणी स्त्रियों के घर आना-जाना, उन्हें अपने घर बुलाना, उनसे लेन-देन रखना,परस्पर वार्ता करना, उनका रुप, श्रृंगार देखना वह इत्वरिकागमन नाम का अतिचार है।५।
ये – पाँच स्थूल ब्रह्मचर्यव्रत के अतिचार दूर से ही त्यागने योग्य हैं। देवों द्वारा पूज्य सा जो ब्रह्मचर्यव्रत, उसकी यदि कोई रक्षा करना चाहता है तो उसे अपनी विवाही स्त्री के सिवाय अन्य माता, बहिन, पुत्री, पुत्रवधु आदि के निकट तथा एकान्त स्थान में भी नहीं रहना चाहिये। अन्य स्त्री का मुख नेत्रादि को अपने नेत्रादि जोड़कर-गड़ाकर स्थिर रखकरनहीं देखना चाहिये। शीलवन्त पुरुषों के नेत्र तो अन्य स्त्री को देखते प्रमाण तुरन्त ही मुद्रित (बंद) हो जाते है। अब परिग्रह परिणाम अणुव्रत को कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निः स्पृहता।
परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छा परिमाणनामापि ॥६१।। अर्थ :- अपने परिणामों में परिग्रह से संतोष आ जाय उतना धन, धान्य, द्विपद , चतुष्पद, क्षेत्र, वास्तु, आभरण (यान, आसन, वस्त्र, पात्र) आदि परिग्रह का परिमाण करके अधिक परिग्रह में निर्वांछकपने का भाव रखना वह परिमित परिग्रह नाम का अणुव्रत है। इसी को इच्छा परिमाण नाम से भी कहते हैं।
यदि किसी के पास वर्तमान में तो थोड़ा परिग्रह है किन्तु वांछा अधिक की होने से अधिक धन से परिमाण करके मर्यादा बांधता है तो वह भी धर्मबुद्धि वाला ही है। व्रती है, परन्तु अन्याय से लेने का त्याग दृढ़ता से करता है। जैसे किसी के पास वर्तमान में परिग्रह सौ रुपया का है किन्तु परिमाण एक हजार रुपये का करता है - कि हजार रुपये से अधिक नहीं ग्रहण करूँगा, तो यह
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