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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [१०१ अर्थ :- अचौर्य नाम के अणुव्रत के पांच अतिचार हैं। आप स्वयं तो चोरी नहीं करता है किन्तु दूसरों को चौरी करने की प्रेरणा देता है तथा चोरी करने के उपाय बतलाता है । वह चोरप्रयोग नाम का अतिचार है।१। चोर से चोरी करके लाये धन को लेना वह चोरार्थादान नाम का अतिचार है । २ । उचित न्याय की रीति छोड़कर अन्य रीति से धनग्रहण करना, तथा राजा की आज्ञा से जिस कार्य को करने का निषेध हो उस कार्य को करके धन ग्रहण करना वह विलोप नाम का अतिचार है । ३ । बहुत मूल्य की वस्तु में अल्प मूल्य की वस्तु मिला कर चला देना वह सदृशसन्मिश्र नाम का अतिचार है। जैसे घी में तेल मिला देना, शुद्ध सोने में कृत्रिम सोना मिला देना वह सदृशसन्मिश्र है । ४। देने का बांट, तराजू आदि कम परिणाम के रखना, तथा लेने के अधिक परिमाण के रखना वह हीनाधिक मानोन्मान नाम का अतिचार है । ५ । इस प्रकार स्थूल चोरी का त्याग नाम के अणुव्रत के ये पांच अतिचार त्यागने योग्य हैं। इस चोरी के समान जगत में दूसरा अपराध नहीं है । समस्त उच्चता कुल, कर्म, धर्म विनाश करने वाली तथा समस्त प्रतीति, बड़प्पन का विध्वंस करने वाली चोरी है। चोरी का धन भी वेश्यासेवन में, पर स्त्री में, व्यसनों में, अभक्ष्य भक्षण में खर्च होता है; व अन्य किसी के पास में ही रखा रह जाता है, संतोष नहीं होता है, क्लेश बना ही रहता है। यदि चोरी का धन प्रकट हो जाता है तो चोर को राजा तीव्र दण्ड देता है; सभी लोग मारते हैं, हाथ नाक का छेदना, सर्वस्व हरण आदि दण्ड यहीं प्राप्त होते है; परलोक में नरक आदि कुयोनियों में परिभ्रमण करना होता है । अब स्थूल ब्रह्मचर्य नाम के अणुव्रत का स्वरुप कहनेवाला श्लोक कहते है। न च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । स्वदारसन्तोषनामापि ।। ५९ ।। सा परदारनिवृत्ति: अर्थ :- जो पाप के भय से पर- स्त्री के यहां स्वयं नही जाता है; तथा न पर- स्त्री के यहां अन्य को गमन कराता है, वह स्वदार - संतोष नाम का या पर- स्त्री का त्याग नाम का अणुव्रत है। " भावार्थ :- जो अपनी जाति की, कुलीन घर की साक्षीपूर्वक विवाही स्त्री में ही संतोष धारण करके; उससे भिन्न अन्य समस्त स्त्री मात्र में राग भाव का त्याग करके; पर - स्त्री, वेश्या, दासी, कुलटा, कुंवारी इत्यादि स्त्रियों में विरागता को प्राप्त होकर स्त्रियों से रागभाव पूर्वक मिलना, वचनालाप करना, अवलोकन करना, स्पर्श करना आदि का त्याग करता है वह पर-स्त्री का त्यागी तथा स्वदार - सन्तोषी भी कहलाता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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