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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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भावार्थ :- यदि अपने भोगोपभोग के साधन मात्र के संबंध में सदोषवचन का त्याग नहीं हो सकता है तो असत्यवचन के त्याग करने में बड़ी सावधानी रखने की आवश्यकता है। वृथा बहुआरम्भ, बहुपरिग्रह का कारण, दुर्ध्यान का कारण, स्वयं को तथा दूसरों को संताप का कारण ऐसा निंद्यवचन-सदोषवचन का तो अवश्य ही त्याग करना श्रेष्ठ है। इस प्रकार स्थूल असत्य का त्याग नाम का दूसरा अणुव्रत कहा है। अब स्थूल चोरी का त्याग नाम का तीसरा अणुव्रत कहनेवाला श्लोक कहते है:
निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् ।
न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्यादुपारमणम् ॥५७।। अर्थ :- किसी पुरुष का जमीन में गड़ा हुआ धन हो; किसी भी स्थान में, महल में, मंदिर में, गृह आदि में, छिपाया हुआ धन हो आपको अमानत सौंप गया हो; अपने मकान में या दूसरे के मकान में आप को बिना बताये-जताये ही रख गया हो, गांव में नगर में रास्ते में वन में बाग में पटक गया हो, आप को सौंप कर भूल गया हो; हिसाब में, लेखे में चूक गया हो; आप के स्थान में भूल से रख गया हो, पटक गया हो; अथवा लेन-देन में, गिनती में, भूला हुआ पैसा, रुपया, मुहर, आभरण, वस्तु आदि मंहगी या थोड़े मोल की हो बिना दी हुई ग्रहण नहीं करना चाहिये। दूसरे की वस्तु उठाकर किसी अन्य को देना भी नहीं चाहिये, यह स्थूल चोरी का त्यागरुप अणुव्रत है। श्री कार्तिकेय स्वामी ने तो ऐसा कहा है
जो बहुमुल्लं वत्थु अप्पमुल्लेण णेय गिण्हेदि ।
वीसरियपि ण गिण्हदि लाहे थोयेवि तूसेदि ।।३३५ ।। का. अनु. अर्थ :- जिसके स्थूल चोरी का त्याग होता है वह बहुत मूल्य की वस्तु अल्प मूल्य में ग्रहण नहीं करता है। जैसे यदि कोई पुरुष अपनी वस्तु ठीक हिसाब लगाकर आपको बेचे तो सवा रुपये में बिक जायेगी, किन्तु उसने वह वस्तु सीधे ही आकर आप को सौंप दी और कहा-इसकी जो कीमत ठीक होती हो वह आप मुझे दे दो। वहाँ वह सवा-रुपये की वस्तु को प्रकट जानता हुआ लोभ के वश होकर एक रुपये (कम) में भी नहीं लेता है, जो ठीक कीमत है वही देता है। दूसरे की भूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करता है। ऐसा भी परिणाम नहीं करता है कि किसी निर्धन या अज्ञानी की वस्तु हमारे पास थोड़े मूल्य में आ जाये तो भला है। वह तो थोड़े लाभ में ही बहुत संतोष रखता है।
भावार्थ :- जो वणिज के व्यवहार में तथा नौकरी में थोड़ा ही लाभ हो तो भी संतोष ही रखता है, अधिक ही लालसा नहीं करता है-उसके स्थूल चोरी का त्याग जानना। अब अचौर्य नाम के अणुव्रत के पांच अतिचार कहनेवाला श्लोक कहते है:
चौरप्रयोग-चौरार्थादान-विलोप-सदृशसन्मिश्राः । हीनाधिकविनिमानं पञ्चास्तेये व्यतीपाताः ॥५८ ।।
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