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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार] उन्हे अजर, अमर, अविनाशी पद प्राप्त कराया है। पंच परमेष्ठी में भी वचनकृत उपकार के प्रभाव से प्रथम अरहन्तों को ही नमस्कार किया है। ज्ञानी वीतरागी के वचनों से स्वर्ग, नरक आदि तीन लोक प्रत्यक्ष के समान दिखाई देते हैं। वचन ही की सत्यता के प्रभाव से पंचमकाल में धर्म चल रहा है। उज्ज्वल वचन, विनय के वचन, प्रिय वचन रुप पुद्गलों से समस्त लोक भरा है; कोई कीमत नहीं देना पड़ती है। किसी से जी कह देने में अपने किसी अंग में कोई कष्ट नहीं होता है; जीभ, तालु, कण्ठ में छेद नहीं हो जाता है। इसलिये जिस वचन से सभी प्राणियों को सुख उत्पन्न हो ऐसा प्रिय वचन ही बोलना चाहिये। असत्य वचन के प्रभाव से ही मिथ्यादेवों की आराधना की प्रवृत्ति चली है। यज्ञ आदि हिंसा के प्ररुपक वेदादि ग्रन्थों में मांस भक्षण आदि कुकर्मों में प्रवृत्ति भी असत्य वचन से ही चली है। खोटे शास्त्रों की रचना, अनेक प्रकार के मिथ्यात्वरुप मत, नरक-तिर्यंच गतियों में परिभ्रमण करानेवाला समस्त दुष्ट आचरण इस असत्य वचन के प्रभाव से ही चल रहा है। अयोग्य वचनों से ही घर-घर में कलह, विसंवाद, परस्पर में वैर, पीटना, मारना, प्राण ले लेना, क्रोधमय, संतापमय , अपमान आदि दिखाई देते हैं। अप्रतीति, अविश्वास, खेद का कारण एक असत्य वचन को ही जानना। असत्य वचन के प्रभाव से परलोक में नरक तिर्यंच गति मिलती है। कुमनुष्यों में नीच, चांडाल , चमार, भील, कसाई इत्यादि कुलों में भी असत्य वचन ही उत्पन्न कराता है। अनेक भवों में दरिद्री, रोगी, गूंगा, बहरा, हीन, दीन, असत्य वचन के प्रभाव से ही होता है। समस्त दुःख का मूल एक असत्यवचन ही है। अतः शीघ्र ही असत्यवचन त्याग कर एक सत्य वचन प्रिय वचन ही में प्रवृत्ति करना चाहिये। तुम्हारा वचन सभी के आदरने योग्य, अनेक देव मनुष्यों के मान्य करने योग्य होना चाहिये। समस्त श्रुत का पारगामी श्रुतकेवलीपना गणधरपना सत्य वचन ही के प्रभाव से प्राप्त होता है। इसलिये असत्य के त्याग से ही जीव का कल्याण है, वही श्री पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ जी में कहा है हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ॥१०१।। पु.सि. भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा मोक्तुम् । ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ।।१०१।। पु.सि. अर्थ :- भगवान ने समस्त असत्यवचन का मूल कारण प्रमत्तयोग को कहा है। कषाय के आधीन होकर जो वचन कहा जाता है वह असत्य वचन है। बिना कषाय के देना , लेना, धरना, त्यागना, ग्रहण करना, इत्यादि कहना वह असत्य वचन नहीं है। यदि गृहस्थ अपने भोगोपभोग के साधन मात्र के संबंध में सदोषवचन त्यागने में समर्थ नहीं है तो अन्य निरर्थक पाप बन्ध करनेवाले समस्त असत्यवचन का अवश्य ही त्याग कर देना चाहिये। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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