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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार कोई आपको धन सौप गया हो, वस्त्र- आभरण रख गया हो, जब वह वापिस लेने आया तो सही संख्या भूलकर कुछ काम मांगने लगा; उससे ऐसा कहना कि तुम्हारा जितना है उतना ही ले जाओ, वह न्यासापहारिता नाम का अतिचार है। ५ ।
इस प्रकार कहे गये स्थूल असत्य का त्याग नामक अणुव्रत के पाँच अतिचार त्यागने योग्य ही हैं।
यहाँ ऐसा विशेष जानना :- अनादिकाल से बहुत काल ( अश्चतकाल) तो इस जीव का निगोदवास में ही बीता है। फिर कदाचित् निगोद से निकलकर पाँच स्थावरों में असंख्यातकाल तक परिभ्रमण करके पनः निगोद में चला गया। वहाँ अनन्तकाल में बारम्बार अनन्तानंत परिवर्तन एक इंद्रिय में ही किये जहाँ न तो वाणी ही मिली, न जिह्वा इंद्रिय ही मिली। जब दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, असैनी पंचेंद्रिय, सैनी तिर्यंच पंचेंद्रिय में उत्पन्न हुआ, वहाँ जिहा तो मिली किन्तु अक्षरात्मक कहने-सुननेरुप वाणी नहीं मिली। बड़ी कठिनाई से अनन्तानंत काल में मनुष्य जन्म मिला; जहाँ बोलने की शक्ति मिली तो नीच कुलों के अयोग्य वचन, हिंसा के वचन, अपने को तथा दूसरे को दुःखी करनेवाले वचन बोलकर महापाप बन्ध करके दुर्गति का पात्र हुआ; अपने वचनों द्वारा ही अपना घातक आप हो गया। कठिनाई से किसी पूर्व पुण्य के उदय से मनुष्य जन्म पाया है तो इसमें वचन बोलने में बहुत सावधानी रखो।
भोजन-पान करना, कामसेवन करना, नेत्रों से देखना, कानों से सुनना, घ्राण से गंध लेना तो शूकर, कूकर, गधा, कौए के भी होता है क्योंकि आंख, नाक, जीभ, स्पर्शन और कामेन्द्रिय-ये तो सभी ढोरों के भी होते हैं। इस मनष्य जन्म में तो एक वाणी बोलना ही सार है, आश्चर्यकारी है। जिसने इस वाणी को बिगाड़ा उसने अपने समस्त जन्म बिगाड़ लिया।
वाणी से ही जाना जाता है कि यह पण्डित है, यह मूर्ख है, यह धर्मात्मा है, यह पापी है, यह राजा है, यह मंत्री है, यह कोतवाल है, यह रंक है, यह अकुलीन है, यह हीनाचारी है, यह उत्तम आचारी है, यह संतोषी है, यह तीव्र लोभी है, यह धर्मवासना सहित है, यह धर्म वासना सहित है, यह मिथ्यादृष्टि है, यह सम्यग्दृष्टि है।
यह संस्कारवान है; यह संस्कार रहित है, यह उत्तम संगतिवाला राज्य सभा में रहा हुआ है, यह ग्राम्यजन-गंवारों में रहा हआ है; यह लौकिक चतर है. यह लौकिक मढ है; यह हस्त कला सहित है, यह कला विज्ञान रहित है; यह उद्यमी-पुरुषार्थी है, यह आलसी-प्रमादी है; यह शूर है, यह कायर है, यह दातार है, यह कृपण है, यह दयावान है, यह निर्दय है; यह दीन याचक है यह महन्त है; यह क्रोधी है, यह क्षमावान है; यह अभिमानी है, यह विनयवान है; यह कपटी है, यह निष्कपट है, यह सरल है, यह वक्र है; इत्यादि आत्मा के समस्त गुण-दोष वचनों द्वारा ही प्रकट होते है। इसलिये यदि मनुष्य जन्म सफल करना चाहते हो तो एक वचन की ही उज्ज्वलता करो।
इस वाणी से ही सच्चा उपदेश देकर भगवान अरहन्त ने तीनों लोकों में वंदनीय होकर जगत को मोक्षमार्ग में प्रवर्तित कराया है; वचन ही ने अनेक जीवों का मिथ्यात्व रागादि मल दूर करके
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