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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१०९ उनसे कहते हैं :- यह तो तुम्हारा भ्रम है। पाप किये बिना धन नहीं आता है – ऐसा कहना अनुचित है। यदि पाप करने से ही धन आता हो तो इस दुनियाँ में लाखों भील, चाण्डाल, चोर, चुगुल, मनुष्यों की हत्या करनेवाले, गांव जलानेवाले, रास्ते में लूटनेवाले, सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी कुल पापियों से भरे हैं, सभी पुरुष, स्त्री, बालक आदि हिंसा करने को तैयार हैं, असत्य बोलने को चोरी करने को तैयार हैं। वे क्यों निर्धन हैं ? जिन्होंने पूर्व जन्म में कुपात्र दान दिया है, कुतप करके खोटा पुण्य बांधा है, उनके पास कुमार्ग से धन आता है। पुण्यहीन तो मारा जाता है। पूर्व पुण्य बिना पाप से ही तो धन नहीं आता है। जिन्होने पहिले बांधा है वे यहां चोरी चुगली किये बिना ही सम्पत्ति प्राप्त करते हैं, राजा के घर जन्म लेते हैं। करोड़ो के धन वाले धनवानों के घर जन्म लेते हैं। इसलिये अधिक क्या कहना, सभी पुण्य का ही फल है। खोटे पुण्य की लक्ष्मी को भोगकर तो जीव नरक-तिर्यंच गति में जाकर डूब जाते हैं। अब परिग्रह परिमाणव्रत के पांच अतिचार वर्णन करनेवाला श्लोक कहते हैं : अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते ।।६२।। अर्थ :- परिमित परिग्रह नाम के व्रत के ये पांच अतिचार जानना। घोड़ा, ऊंट, बैल इत्यादि तिर्यंचों को तथा दासी, दास, सेवक आदि को अतिलोभ के वश से मर्यादारहित अतिदूर की मंजिल तक ले जाना , बहुत चलाना वह अतिवाहन नाम का अतिचार है।१। ____ अपने घर में बिना प्रयोजन ही बहुत पदार्थों का संग्रह करना; भोजन, पात्र, वस्त्र इत्यादि थोड़े की आवश्यकता हो, किन्तु संग्रह बहुत का करना; धान्य, वस्त्र, औषधि, काष्ठ, पाषाण, धातु इत्यादि का बहुत संग्रह करने में ही परिणामों का रहना वह अतिसंग्रह नाम का अतिचार है ।। दूसरों के यहां बहुत संपत्ति , बहुत परिग्रह , अनेक देशों की वस्तुएँ तथा जो कभी नहीं देखी ऐसी वस्तुओं को देखकर-सुनकर आश्चर्य करना वह विस्मय नाम का अतिचार है।। किसी व्यापार में, सेवा में, कला से, हुनर से आप को अंतराय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार बहुत लाभ हो गया तो भी तृप्त नहीं होना, संतोष नहीं आना वह अतिलोभ नाम का अतिचार है।४। लोभ के वश से तिर्यंचों के ऊपर सीमा से अधिक भार लादकर चलाना वह अतिभारवहन नाम का अतिचार है।५। जो गृहस्थ परिग्रह का परिमाण करता है वह इन पाँच अतिचारों का भी परित्याग करता है। इस प्रकार गृहस्थों के धारण करने योग्य पाँच अणुव्रतों को कहकर अब पाँच अणुव्रतों का फल कहनेवाला श्लोक कहते हैं : Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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