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बाह्य में प्राणियों की हिंसा होओ या नहीं होओ, यदि परिणाम राग-द्वेष आदि कषाय सहित हो गये तो अपने ज्ञान-दर्शन आदि भावप्राणों का घात हो गया, वही आत्म हिंसा है। जो आत्म हिंसा करता है वह अन्य की हिंसा भी करता ही है, जिसके आत्म हिंसा है उसके पर की हिंसा भी होती ही है।
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि ।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।। ४५ ।। पु. सि. अर्थ :- योग आचरण करने वाले सत्पुरुष के रागद्वेषादि कषाय के बिना प्राणों के घात मात्र से ही कभी हिंसा नहीं होती है।
भावार्थः यत्नाचार पूर्वक दया सहित प्रवर्तन करनेवाले पुरुष के द्वारा जीव घात होने पर भी हिंसाकृत बंध नहीं होता है।
व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् ।
म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ।।४६ ।। पु. सि. अर्थ :- रागद्वेष आदि पूर्वक जो प्रवृत्ति , गमन , आगमन, उठना, बैठना, धरना, उठाना, ऐसे आरंभ जिनमें जीवों का मरण हो या नहीं हो, हिंसा तो निश्चय से आगे दौड़ती है अर्थात् अवश्य होती ही है। जो यत्नाचार रहित होकर आरम्भ करता है उसके द्वारा, जीव अपने आयु के आधीन मरे या ना मरे, वह तो अपने परिणामों में निर्दयी हो गया, उसे तो हिंसाकृत बंध आगे-आगे दौड़ता है ।
यस्मात्सकषाय : सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् ।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ।।४७।। पु. सि. अर्थ :- कषाय सहित होता हुआ आत्मा प्रथम तो अपने ही द्वारा अपना ही घात करता है, पश्चात् अन्य प्राणी की हिंसा हो या नहीं हो। जिस समय आत्मा कषाय सहित हुआ उसी समय में अपने ज्ञानानंद वीतराग स्वरुप का घात तो अवश्य ही कर चुकता है।
हिंसायामविरमणं हिसापरिणमनमपि भवति हिंसा ।
तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४८।। पु. सि. अर्थ :- हिंसा के विषय में विरक्त होकर उसका त्याग नहीं करना वह भी हिंसा है तथा हिंसा की प्रवृत्ति करना वह तो हिंसा है ही । प्रमत्तयोग होने से प्राणों का घात नित्य ही लगातार होता रहता है।
भावार्थ :- अपना और दूसरे का घात हो जाने की सावधानी से रहित जो मन-वचनकायरुप योंगों का प्रवर्तन है उसका नाम प्रमत्तयोग है। जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ शाश्वती-लगातार होनेवाली-हिंसा है। यदि कोई हिंसा तो नहीं करता है किन्तु हिंसा से विरक्त होकर हिंसा का त्याग नहीं करता
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