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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ९२] लोभ के वश होकर अपने संकल्प से एक चींटी भी नहीं मारता है, एसी व्रत में दृढ़ता है। उत्तम कुलवाला तो खेती करता ही नही है। विद्या द्वारा आजीविका करनेवाले बाह्मण आदि श्रावक मिथ्यात्वभाव के पुष्ट करनेवाले तथा हिंसा की प्रधानता लिये राग द्वेष को बढ़ानेवाले शास्त्रों को त्यागकर उज्ज्वल विद्या पढ़ाते हैं, वहीं दया है। श्रावक तो बहुत हिंसा के खोटे वाणिज्य-व्यापार त्यागकर, न्याय पूर्वक , तीव लोभ को छोड़कर, अपनी अंतरंग में निन्दा करते हुए, संतोष सहित, प्रामाणिक, सत्य सहित व्यवहार करता है; दया धर्म को नहीं भूलता है। सब जीवों को अपने समान जानता हुआ व्यापार करता है। __ शिल्पकर्म करने वाला शूद्र भी जो श्रावक के व्रत ग्रहण करता हैं, वह बहुत निंद्य कर्मों को तो छोड़ ही देता है। यदि छोड़ने में समर्थ नहीं हुआ तो उसमें बहुत हिंसा को टालकर दया रुप प्रवर्तता है। संकल्प पूर्वक किसी को मारना ही है - ऐसा जानबूझकर घात नहीं करता है। मंदिर बनवाना, पूजन करना, दान देना आदि कार्यों में निरन्तर बड़े यत्नाचार से केवल दया धर्म के निमित्त ही प्रवर्तन करता है। ___ हिंसा का भाव क्यों होता है ? इसके विषय में पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नामक ग्रन्थ में श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने इस प्रकार कहा है यत्खलु कषाययोगाव्याणानां द्रव्यभावरुपाणाम । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४३।। पु. सि . अर्थ :- कषाय पूर्वक इंदिय कायादि द्रव्य प्राणो का तथा ज्ञानदर्शन आदि भाव प्राणों का वियोग करने से निश्चित ही हिंसा होती है। भावार्थ :- कषाय के वश होकर पर के द्रव्यप्राणों और भावप्राणों का वियोग करने से निश्चित ही हिंसा होती है। कषाय रहित के द्वारा प्राणी का मरण मात्र हो जाने से हिंसा नहीं होती है। जो स्वयं कषाय सहित होकर अन्य जीव को मारने का भाव करता है उसे हिंसा होती है, वह हिंसक है। जैन धर्म का सार : हिंसा - अहिंसा का स्वरुप - अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्ति: हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४४।। पु. सि. अर्थ :- आत्मा के परिणामों में राग-द्वेष आदि का उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा है, तथा आत्मा के परिणामों में राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति हो जाना ही हिंसा है। जिनेन्द्र भगवान के आगम का संक्षेप तो इस प्रकार है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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