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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [९१ ओखली भी सोधकर झाड़कर, अनाज को सोधकर पीसने - कूटने का आरम्भ करता है; घुना-बींधा अनाज प्रयोग में नहीं लेता है, दिन में देखकर कोमल कूची - मूंज आदि के द्वारा जीवों की विराधना के भय सहित बुहारी देता है, पानी रखने के स्थान को झाड़ता है, तथा जल को दुहरे मोटे वस्त्र से छानकर यत्नाचार पूर्वक वर्तता है । उद्योगी हिंसा का त्याग : श्रावक द्रव्य का उपार्जन भी अपने कुल के योग्य सामर्थ्य सहायता के योग्य जैसे यश और धर्म नीति नहीं बिंगड़े उस प्रकार यत्नाचार पूर्वक असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प - इन छह कमों द्वारा करता है। श्रावक के व्रत तो चारों वर्णों में होते हैं। यदि उज्ज्वल हिंसा रहित कर्म से अपनी आजीविका होती है तो निद्यकर्म द्वारा, संक्लेश भाव द्वारा, लोभादि के वशीभूत होकर पापरूप आजीविका नहीं करना चाहिये। यदि अपने लिये अन्य उत्तम आजीविका का उपाय नहीं दीखता है तो घटाकर (कर्म करके) पाप से भयभीत होता हुआ न्यायपूर्वक ही करे । विरोधी हिंसा का त्याग : क्षत्रिय कुल का शस्त्रधारी श्रावक हो तो दीन - अनाथ की रक्षा करता हुआ दीन-दुःखी - निर्बल का घात नहीं करे, शस्त्र रहित को नहीं मारे, गिरे पड़े हुए का घात नहीं करे, पीठ दिखाकर भागने वालों - दीनता के बचन बोलने वालों का घात तो करना ही नहीं चाहिये। धन को लूटाने लिये घात नहीं करें; अभिमान से, बैर से घात नहीं करे। जो अपने ऊपर घात बार करता हुआ आ रहा हो उसको तथा दीनों को मारने को आ रहे हों उनको शस्त्र से रोके । यदि शस्त्र से आजीविका कर रहा हो तो केवल स्वामी धर्म से तथा अनाथों की रक्षा का भार आप पर हो तो शस्त्र धारण करे। जो शस्त्र सम्बन्धी नौकरी नहीं करता हो और जिस पर प्रजा की रक्षा का भार ( स्वामीपना ) भी नहीं हो, उसे व्यर्थ ही शस्त्र धारण नहीं करना चाहिये । स्याही से न्याय-नीति पूर्वक ही आजीविका करना चाहिये । आमद - खर्च लिखने की जीविका हो तो मायाचार आदि दोष रहित होकर स्वामी के कार्य को यथावत् सही लिखकर जीविका करना चाहिये। खेती का त्याग : माली, जाट इत्यादि कुल में यदि अन्य जीविका नहीं हो तो कृषि द्वारा आजीविका करते हुए भी दया धर्म को नहीं छोड़ना चाहिये। जो खेत पहले बोता आया हो उसी का प्रमाण करके अधिक का त्यागी होकर खेती करे। अधिक तृष्णा नहीं करे । उसमें से भी बहुत घटाता हुआ अपनी निन्दा करता हुआ खेती करे। बहुत जल सींचता है तो एक चुल्लुभर भी अनछना जल नहीं पीता है। कोई आकर बहुत धन भी देवे और कहे कि तुम यहाँ धान्य के बहुत वृक्ष पौधे काटते हो, हमसे एक स्वर्ण की मोहर लेकर हमारे वृक्ष की एक डाक ही काट आओ; तो भी वह लोभ के वश होकर कभी नहीं काटता है । खेती में बहुत जीव मरते हैं, तो भी यहाँ इसका जीवों को मारने का अभिप्राय नहीं है, केवल आजीविका का अभिप्राय है । कोई सौ मोहर देवे तो भी Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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