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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार है, तो वह सोते हुए बिलाव के समान सदाकाल हिंसक ही है । जो हिंसा में प्रवर्तन करता है वह तो हिंसक है ही। बाह्य हिंसा का निमित्त मिले या ना मिले भावों से तो दोनों ही हिंसक हैं।
सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंस : ।
हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।।४९ ।। पु. सि. __ अर्थ :- पुरुष के जो भी हिंसा होती है वह तो अपने परिणामों में हिंसा करने का भाव हो जाने से होती है; अन्य वस्तु तो सूक्ष्म हिंसा के लिये भी कारण नहीं होती है। यहाँ कोई प्रश्न करता है - यदि पर द्रव्य के निमित्त से सूक्ष्म भी हिंसा नहीं होती है तो बाह्य वस्तु का त्याग , व्रत , संयम किसलिये करते है ?
इसका उत्तर कहते है :- हिंसा तो जीव के हिंसक परिणाम होने पर ही होती है, परन्तु जो हिंसा के स्थानों में प्रवर्तन करेगा उसके हिंसा के परिणाम कैसे नहीं होंगे? इसलिये अपने परिणामों की विशुद्धता के लिये जहाँ हिंसा होती हो ऐसे खान-पान, ग्रहण, आसन, वचन, चिंतवन आदि का त्याग करना उचित ही है।
निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते ।
नाशयति करणचरणं स बहि: करणालसो बालः ।।५० ।। पु. सि. __ अर्थ :- जिस जीव ने निश्चयनय का विषय रागादि कषाय रहित शुद्ध आत्मा के स्वरुप को तो जाना नहीं है, और ऐसा मानकर कि मेरे भाव तो कषाय रहित हैं, मेरी समस्त प्रवृत्ति में हिंसा होती ही नहीं है, व्यर्थ की कल्पना करके निरर्गल यथेच्छ प्रवर्तता है, वह अज्ञानी बाह्य आचरण की अहिंसक प्रवृत्ति छोड़कर प्रमादी हुआ करण-चरन-रुप (भावरुप तथा क्रियारुप) सम्पूर्ण चारित्र का नाश करनेवाला है।
भावार्थ :- जिसके परिणाम राग-द्वेष रहित हुए हैं वह अयोग्य भोजन ,पान धन, परिगह, आरम्भ आदि में कैसे प्रवर्तन करेगा? जो हिंसा से विरक्त है वह हिंसा के कारण दूर ही से छोड़ देगा।
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में हिंसा के विषय में आगे और भी कहा है१. कोई तो हिंसा किये बिना ही हिंसा के फल को भोगने वाले हो जाते हैं। जैसे-शस्त्र
बनाने वाले लुहार, सिकलीगर हिंसा किये बिना ही तन्दुलमच्छ के समान हिंसा के फल
को (तीव्र अशुभ बंध ) प्राप्त हो जाते हैं। २. कोई दयावान होकर यत्नाचार पूर्वक जिनमंदिर बनवाने वाला बाह्य में हिंसा होने पर
भी हिंसा के फल को प्राप्त नहीं करता है। ३. कोई पुरुष ने हिंसा तो अल्प की थी, परन्तु तीव्र राग-द्वेषरुप भावों से की थी,
इसलिये उदयकाल में बहुत अधिक खोटा फल प्राप्त करता हैं।
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