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________________ ८८] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार अर्थ :- हिंसा,झूठ, चोरी, मैथुनसेवन, परिगह - ये पाप आने के बड़े रास्ते (परनाला) है, इनसे विरक्त हो जाना ही सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है । भावार्थ :- निश्चय चारित्र तो बाह्य समस्त प्रवृत्तियों से छूटकर परम वीतरागता के प्रभाव से परम साम्यभाव को प्राप्त होकर, अपने ज्ञायकभावरुप स्वभाव में चर्या है, उसी का नाम स्वरुपाचरण चारित्र है । तो भी पाँच पापों से विरक्त होकर अन्तर - बाह्य प्रवृत्ति की उज्ज्वलतारुप व्यवहार चारित्र के बिना निश्चय चारित्र की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये हिंसादि पाँच पापों का त्याग करना ही श्रेष्ठ है । पाँच पापों का त्याग करना ही चारित्र है। अब चारित्र के दो भेद हैं ऐसा कहनेवाला श्लोक कहते है: सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससङ्गानाम् ।। ५० ।। अर्थ :- समस्त अंतर - बाह्य परिग्रह से विरक्त जो अनगार अर्थात् गृह मठादि नियत स्थान रहित वनखण्डादि में परम् दयालु होकर निरालम्बी विचरण करते है ऐसे ज्ञानी मुनीश्वरों के जो चारित्र होता है वह सकल चारित्र है । जो स्त्री- पुत्र -धन-धान्यादि परिग्रह सहित घर में ही निवास करते हैं, जिनवचनों के श्रद्धानी हैं, न्यायमार्ग का उलंघन नहीं करते है,पापों से भयभीत हैं ऐसे ज्ञानी गृहस्थों के विकल चारित्र है। भावार्थ :- गृह कुटुम्ब आदि के त्यागी, अपने शरीर से निर्ममत्व रहनेवाले साधुओं के सकल चारित्र होता है। गृह - कुटुम्ब - धनादि सहित गृहस्थों के विकल चारित्र होता है। अब गृहस्थों के विकल चारित्र कहनेवाला श्लोक कहते है: गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षाव्रतात्मकं चरणम् । पञ्च-त्रि- चतुर्भेदं त्रयं यथासङ्ख्यमाख्यातम् ।। ५१ ।। अर्थ :- गृहस्थों के अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतरुप तीन प्रकार का चारित्र होता है। उस तीन प्रकार के चारित्र के क्रमशः पाँच, तीन और चार भेद परमागम में कहे हैं। भावार्थ :- जो गृहवास छोड़ने से समर्थ नहीं है, ऐसा सम्यग्दृष्टि घर में रहता हुआ ही पाँच प्रकार के अणुव्रत, तीन प्रकार के गुणवत और चार प्रकार के शिक्षावत धारण करके चारित्र को पालता है । अब पाँच प्रकार के अणुव्रत कहनेवाला श्लोक कहते हैं: प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूर्छाभ्यः I स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ।। ५२ ।। अर्थ :- प्राणों का अतिपात अर्थात् वियोग करना उसे प्राणातिपात अर्थात् हिंसा कहते हैं; वितथ अर्थात् असत्य, व्याहार अर्थात् वचन बोलना उसे वितथ व्याहार अर्थात् असत्य वचन कहते हैं; स्तेय Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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