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तृतिय - अणुव्रत अधिकार
अब सम्यक्चारित्र नाम के तीसरे अधिकार का वर्णन करते हुए चारित्र स्वरुप जो धर्म हे ,उसे कहनेवाला श्लोक कहते है:
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान: ।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।४७।। अर्थ :- दर्शनमोहरुप अंधकार के दूर होने पर, सम्यग्दर्शन के प्रगट होने पर,जिसे सम्यग्ज्ञान की भी प्राप्ति हो गई है, ऐसा साधु ( सत्पुरुष ) जो निकटभव्य है, वह रागद्वेष के पूर्ण अभाव के लिये चारित्र अंगीकार करता है।
भावार्थ :- अनदिकाल से दर्शनमोहनीयकर्म के उदयरुप अंधकार से इस संसारी जीव का ज्ञान नेत्र ढका हुआ है, जिससे यह स्व-पर के भेदज्ञान से रहित होकर चारों गतियों में पर्याय(शरीर) को ही आत्मा जानता हुआ अनंतकाल से परिभ्रमण कर रहा है। किसी जीव को करणलब्ध्यादि कारण मिलने पर दर्शनमोह के उपशम–क्षयोपशम–क्षय होने पर सम्यग्दर्शन होता है,तब मिथ्यात्व का अभाव होने से ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है, उस समय कोई सम्यग्ज्ञानी सज्जन पुरुष रागद्वेष के पूर्ण अभाव के लिये चारित्र अंगीकार करता
है।
अब रागद्वेष का अभाव होने पर ही हिंसादि का अभाव होने का नियम है, ऐसा श्लोक द्वारा कहते है :
रागद्वेषनिवृत्तेः हिंसादिनिवर्तना कृता भवति ।
अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ।।८।। अर्थ :- रागद्वेष का अभाव होने पर हिंसादि पाँचो पापों की पूर्ण निवृत्ति अर्थात् अभाव हो जाता है। पाँच पापों का अभाव होना ही चारित्र है। जिसे अपने किसी प्रयोजन के लिये कोई भी पदार्थ की अभिलाषा नहीं रह गई है, ऐसा पुरुष क्यों किसी राजा आदि की सेवा करेगा ? नहीं करेगा। राजादि की महाकष्टरुप सेवा तो जिसे भोगों की चाह हो,धन तथा अभिमान आदि की अभिलाषा होती है,वही करता है। जिसे कुछ अपेक्षा(चाहना) नहीं है, वह राजा की सेवा नहीं करता है। उसी प्रकार जिसके रागद्वेष का अभाव हो गया, वह पुरुष हिंसादि पाँच पापों में प्रवृत्ति नहीं करता है। अब चरित्र का लक्षण रागद्वेष का अभाव कहा है इसी को श्लोक द्वारा कहते है:
हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथनुसेवा परिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ।।४९ ।।
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