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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
८६]
परिशिष्ट-२
ज्ञान की आराधना ज्ञान को उजागर सहज सुख सागर, सुगुन रत्नाकार विराग रस भरयो है । सरन की रीति हरै मरन को न भय करै, करन सौं पीठि दे चरन अनुसरयो है ।। धरन को मण्डन भरम को विहण्डन है, परम नरम हो के करम सौं लरयो है। ऐसौ मुनिराज भुविलोक में विराजमान, निरखि बनारसी नमस्कार करयो है ।।१।। जाकै घट प्रगट विवेक गणधर कौ सौ, हिरदै हरखि महामोह को हरतु है । सांचो सुख माने निज महिमा अडोल जानै, आपुही में आपुनो स्वभाव ले धरतु है ।। जैसे जल कर्दम कतकफल भिन्न करै, तैसें जीव अजीव बिलछनु करतु है । आतम शकति साथै ज्ञान को उदौ आराधै , सोई समकिती भव सागर तरतु है ।।२।। भेष में न ज्ञान नहिं ज्ञान गुरुवर्तन में, मंत्र जंत्र तंत्र में न ज्ञान की कहानी है ।। ग्रन्थ में न ज्ञान नहिं ज्ञान कवि चातुरी में, बातन में ज्ञान नहिं ज्ञान कहा वानी है ।। तातें भेष गुरुता कवित्त ग्रन्थ मंत्र बात, इन” अतीत ज्ञान चेतना निसानी है । ज्ञान ही में ज्ञान नहिं ज्ञान और ठौर कहूँ जाके घट ज्ञान सो ही ज्ञान का निदानी है ।।३।।
- नाटक समयसार प्रथम श्रुतज्ञान के अवलंबन से ज्ञान स्वभाव आत्मा का निश्चय करके, फिर आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिये, पर पदार्थ की प्रसिद्धि की कारन जो इंद्रियों के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियाँ है,उन्हें मर्यादा में लाकर जिसने मतिज्ञान-तत्त्व को आत्मसन्मुख किया है ऐसा, तथा नाना प्रकार के पक्षों के आलंबन से होने वाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता को उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मान-मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्व को भी आत्मसन्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल..... परमात्म स्वरुप आत्मा को जब आत्मा अनुभव करता है उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है और ज्ञात होता है, वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
- समयसार गाथा १४४ टीका रे ज्ञानगुण से रहित बहुजन, पद नहीं यह पा सके । तू कर ग्रहण पद नियत ये, जो कर्म मोक्षेच्छा तुझे ।।२०५ ।।
-समयसार देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा । अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ।।२।।
-समयसार कलश
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