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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates द्वितीय - सम्यग्दर्शन अधिकार]
___ [८५ भावार्थ :- मुनि और गृहस्थ का जो निर्दोष आचरण, उसकी उत्पत्ति का , दिन प्रतिदिन वृद्धि का , धारण किये आचरण की रक्षा का कारण चरणानुयोगरुप सम्यग्ज्ञान ही है। अब द्रव्यानुयोग को जाननेवाला भी सम्यग्ज्ञान ही है, ऐसा श्लोक द्वारा कहते है:
जीवाजीवसुतत्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्या लोकमातनुते ।।६।। अर्थ :- जो द्रव्यानुयोगरुप दीपक है, वह जीव और अजीव इन दोनों निर्बाध तत्त्वो को, पुण्य-पाप को ,तथा बन्ध-मोक्ष को भावश्रुतज्ञान रुप सम्यग्ज्ञान प्रकाश के द्वारा “जैसा इनका स्वरुप है वैसा” प्रकाशित करता है।
भावार्थ :- द्रव्यानुयोग दीपक बाधा रहित जीव-अजीव के स्वरुप को ,पुण्य-पाप के स्वरुप को,कर्म के बन्ध के स्वरुप को तथा कर्मों से छूटजानेरुप मोक्ष के स्वरुप को “ जिस प्रकार से आत्मा में उद्योत हो जाये उस प्रकार” विस्तार से दिखलाता है।
इस प्रकार चार अनुयोगरुप सम्यक् श्रुतज्ञान के स्वरुप का वर्णन किया। ज्ञान के बीस भेद, अंगो तथा पूर्वो का वर्णन करने से ग्रन्थ बहुत बढ़ जायेगा, इसलिये उनका यहाँ वर्णन नहीं किया।
द्वितीय-सम्यग्ज्ञान अधिकार
समाप्त
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