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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
८४]
प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध: समीचीनः ।।४३।। अर्थ :- सम्यग्ज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है। कैसा है प्रथमानुयोग ? जिसमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरुप चारों पुरुषार्थ का कथन है। एक पुरुष की मुख्यता से जो वर्णन होता है वह चरित्र कहलाता है, वह तथा जिसमें त्रेसठ शलाका पुरुषों के सम्बन्ध में वर्णन होता है उसे पुराण कहते हैं, वह भी प्रथमानुयोग कहा जाता है। सम्यग्दर्शन आदि जिन्हें नहीं था, उन्हें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होना बोधि कहलाता है; जिन्हें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र था उसकी परिपूर्णता समाधि कहलाती है। प्रथमानुयोग रत्नत्रय की प्राप्ति और परिपूर्णता का निधान है, उत्पत्ति का स्थान है, पुण्य होने का कारण है अतः पुण्य है। ऐसे प्रथमानुयोग को सम्यग्ज्ञान ही जानता है।
भावार्थ :- प्रथमानुयोग में धर्म (पुण्य ) का कथन, उस धर्म का फलरुप कहा जो धनसम्पत्तिरुप अर्थ उसका कथन, पाँच इंद्रियों के विषयरुप जो काम उसका कथन, तथा संसार से छूटनेरुप जो मोक्ष उसका कथन होता है। उस प्रथमानुयोग को एक पुरुष के आचरण की कथा कहने से चरित्र, त्रेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन होने से पुराण, वक्ता-श्रोताओं को पुण्य की उत्पत्ति का कारण होने से पुण्य , तथा चार आराधना की प्राप्ति एवं पूर्णता का वर्णन होने से निधान कहा जाता है। ऐसे प्रथमानुयोग को सम्यग्ज्ञान ही जानता है। अब करणानुयोग को जाननेवाला भी सम्यग्ज्ञान है ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं:
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च ।
आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ।।४४।। अर्थ :- सम्यग्ज्ञान करणानुयोग को जानता है। करणानुयोग कैसा है ? लोक और अलोक के विभाग को, उत्सर्पिणी के छह काल व अवसर्पिणी के छह काल के परिवर्तन को, तथा चार गतियों के परिभ्रमण को दर्पण के समान दिखाने वाला है।
भावार्थ :- जिसमें छह द्रव्यों का समूहरुप लोक एवं केवल आकाश द्रव्यरुप अलोक अपने गुण पर्यायों सहित प्रतिबिम्बत हो रहे हैं; छहों कालों के निमित्त से जीव पुद्गलों की जैसी पर्यायें हैं, वे सब प्रतिबिंबित होकर झलक रही हैं; तथा चारों गतियों का स्वरुप जिसमें प्रकट झलकता है वह दर्पण के समान करणानुयोग है। उसे यथावत् सम्यग्ज्ञान ही जानता है। अब चरणानुयोग का स्वरुप सम्यग्ज्ञान जानता है ,ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं:
गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम् ।
चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ।।४५।। अर्थ :- गृह में आसक्त है बुद्धि जिनकी ऐसे गृहस्थ ,गृह से विरक्त होकर गृह के त्यागी ऐसे अनगार अर्थात् यति, उनका चारित्ररुप जो सम्यक् आचरण उसकी उत्पत्ति , वृद्धि और रक्षा का अंग अर्थात् कारण ऐसे चरणानुयोग सिद्धान्त को सम्यग्ज्ञान ही जानता है।
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