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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates द्वितीय - सम्यग्दर्शन अधिकार] [८३ द्वितीय - सम्यग्ज्ञान अधिकार अब सम्यग्ज्ञानरूप धर्म को प्रकट करनेवाला श्लोक कहते हैं : अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात । निस्सन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनाः ।।४२।। अर्थ :- आगम के जाननेवाले जो श्री गणधरदेव तथा श्रुतकेवली हैं,वे उस ज्ञान को ज्ञान कहते हैं जो वस्तुस्वरुप को परिपूर्ण जानता है, कम नहीं जानता है, अधिक नहीं जानता है, जैसा वस्तु का यथार्थ सत्य स्वरुप है वैसा ही जानता है, विपरीतता रहित जानता है, संशय रहित जानता है। भावार्थ :- यहाँ भगवान गणधरदेव ने सम्यग्ज्ञान का स्वरुप बताया है। जो ज्ञान वस्तु के स्वरुप को न्यून जानता है वह मिथ्याज्ञान है। जैसे आत्मा का स्वभाव तो अनन्तज्ञानक्षायिकज्ञान स्वरुप है, किन्तु कोई ज्ञान आत्मा को इन्द्रियजनित मतिज्ञान मात्र ही जानता है, तो वह ज्ञान न्युनस्वरुप जानने से मिथ्याज्ञान कहलाया। जो ज्ञान वस्तु के स्वरुप को अधिक जानता है वह ज्ञान भी मिथ्याज्ञान है। जैसे आत्मा का स्वभाव तो ज्ञान, दर्शन,सुख, सत्ता, अमूर्तिक है उसे ज्ञान,दर्शन, सुख, सत्ता, अमूर्तिक भी जानना तथा पुद्गल के गुण रुप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, मूर्तिक भी जानना। यह ज्ञान अधिक जानने से मिथ्याज्ञान कहलाया। सीप को सफेद तथा चमकता हुआ देखकर उसे चाँदी जानना। वह विपरीत ज्ञान होने से मिथ्याज्ञान है। यह सीप है कि चाँदी है ? इस प्रकार दोनों में संशयरुप एक के निश्चय से रहित जानना , वह संशयज्ञान होने से मिथ्याज्ञान है। जिस वस्तु का जैसा स्वरुप है उसे वैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। जैसे सोलह में पाँच का गुणा करने से अस्सी होते है, उसे अठहत्तर जाने तो न्यून जानना हुआ, बियासी जाने तो अधिक जानना हुआ , सोलह या पाँच जानना वह विपरीत जानना हुआ, तथा सोलह में पाँच का गुणा करने पर अस्सी होते है या अठहत्तर ऐसा संदेहरुप जानना संशयज्ञान है। इस प्रकार न्यून जानना, अधिक जानना, विपरीत जानना, संशयरुप जानना- यह चारों प्रकार का जानना मिथ्याज्ञान है। जो ज्ञान वस्तु के स्वरुप को न्यून नहीं जाने, अधिक नहीं जाने, विपरीत नहीं जाने, संशयरुप नहीं जाने, जैसा वस्तु का स्वरुप है वैसा संशयरहित जाने उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। अब सम्यग्ज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है, ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं : Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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