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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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यह उदासीन होकर शास्त्र में जो अणुव्रत-महाव्रत रूप व्यवहार चारित्र कहा है उसे अंगीकार करता है, एकदेश अथवा सर्वदेश हिंसादि पापों को छोड़ता है उनके स्थान पर अहिंसादि पूण्यरूप कार्यों में प्रवर्तता है। तथा जिस प्रकार पर्यायाश्रित पाप कार्यों में अपना कर्त्तापना मानता था; उसी प्रकार अब पर्यायाश्रित पुण्य कार्यों में अपना कर्त्तापना मानने लगा। इस प्रकार पर्यायाश्रित कार्यों में अहंबुद्धि वही मिथ्यादृष्टि है।
- मो. मा. प्र. २४४ इस प्रकार आप कर्त्ता होकर श्रावकधर्म अथवा मुनिधर्म की क्रियाओं में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति निरन्तर रखता है, जैसे उन क्रियाओं में भंग न हो वैसे प्रवर्तता है; परन्तु ऐसे भाव तो सराग हैं; चारित्र है वह वीतराग भाग रूप है। इसलिये ऐसे साधन को मोक्षमार्ग मानना मिथ्याबुद्धि है। – मो. मा. प्र. २४४
भव भव में जिनपूजन कीनी, दान सुपात्रहिं दीनो । भव भव में मैं समोशरण में, देख्यो जिनगुण भीनो । एती वस्तु मिली भव भव में, सम्यग् गुण नहिं पायो । ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातें जग भरमायो ।
फुटनोट - १. इस करणलब्धि वाले के बुद्धिपूर्वक तो इतना ही उद्यम होता है कि उस तत्त्व विचार में उपयोग को
तद्रूप होकर लगाये, उससे समय-समय परिणाम निर्मल होते जाते हैं। मो. मा. प्र. २६२ (पृ. ६०) २. इस प्रकार अपूर्वकरण होने के पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है। उसका काल अपूर्वकरण के भी
संख्यातवें भाग है। उसमें पूर्वोक्त आवश्यक सहित कितना ही काल जाने के बाद अंतकरण करता है, जो अनिवृतिकरण के काल पश्चात् उदय आने योग्य ऐसे मिथ्यात्व कर्म के मुहूर्तमात्र निषेक उनका अभाव करता है; उन परमाणुओं को अन्यस्थितिरूप परिणमित करता है। तथा अन्तरकरण करने के पश्चात् उपशमकरण करता है। अन्तरकरण द्वारा अभावरूप किये निषेकों के ऊपर वाले जो मिथ्यात्व के निषेक हैं, उनको उदय आने के अयोग्य बनता है। इत्यादिक क्रिया द्वारा अनिवृत्तिकरण के अंतसमय के अनंतर जिन निषेकों का अभाव किया था, उनका काल आये, तब निषेकों के बिना उदय किसका आयेगा? इसलिये मिथ्यात्व का उदय न होने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। मो. मा. प्र. पृ. २६४ (पृ. ६२)
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