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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार [८१ गृहीत मिथ्यात्व का स्वरूप कोई कहता है कि :- हमतो सच्चे देव को जानकर कुल के आश्रय से व पंचायत के आश्रय से पूजा दर्शनादि धर्मबुद्धि पूर्वक करते हैं। उससे कहते है कि :- वे देव तो सच्चे ही हैं, परन्तु तुम्हारे ज्ञान में उनका सच्चा रूप प्रतिभासित नहीं हुआ। जिस प्रकार तुम पंचायत व कुलादिक के आश्रय से धर्मबुद्धि से पूजादिक के कार्यों में वर्तते हो उसी प्रकार अन्य मतावलम्बी भी धर्मबुद्धि से व अपनी पंचायत या कुलादिक के आश्रय से अपने देवादिक की पूजादि करते हैं। तो तुममें और उनमें विशेष अन्तर कहाँ रहा ? उस मान्यता के आश्रय से सच्चे देवादिक का ही पक्षपातीपने से सेवक होकर प्रवर्तता है उसके भी गृहीत मिथ्यात्व है। ___गृहीत मिथ्यात्व का त्याग तो यह है अन्य देवादि के बाह्यगुणों के तथा प्रबन्ध के आश्रय स्वरूप पहले जानकर स्वरूप विपर्यय, कारण विपर्यय और भेदाभेद विपर्यय रहित ज्ञान में निश्चय करके, फिर जिनदेवादिक का बाह्यगुणों के आश्रय से व व्यवहार रूप निश्चय करके, पश्चात् अपना मुख्य प्रयोजन सिद्ध न होने से हेय-उपादेयपना मानने पर अन्य की वासना मूल से छूटती है और जिनदेवादिक में ही सच्ची प्रतीति उत्पन्न होती है। - सत्ता स्वरूप ८ सच्चा जैन जिनको सच्चा जैन बनना हो उनको शास्त्र के आश्रय से तत्त्वनिर्णय करना योग्य है; परन्तु जो तत्त्वनिर्णय नहीं करते और पूजा. स्तोत्र, दर्शन, त्याग, तप वैराग्य, संयम, संतोष आदि हैं सो उनके सर्व कार्य असत्य है। इसलिये आगम का सेवन, युक्ति का अवलम्बन, परम्परा, गुरुओं का उपदेश और स्वानुभव द्वारा तत्त्वनिर्णय करना योग्य है। देव-गुरु-धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं, इनके आदर से धर्म है। इनमें शिथिलता रखने से अन्य धर्म किस प्रकार होगा? इसलिये बहुत कहने से क्या ? सर्वथा प्रकार से कुदेव-कुगुरु-कुधर्म का त्यागी होना योग्य है। - मो. मा. प्र. १९२ कितने ही जीव ऐसा मानते हैं कि जानने में क्या है, कुछ करेंगे तो फल लगेगा। ऐसा विचारकर व्रत-तप आदि क्रिया से उद्यमी रहते हैं और तत्त्वज्ञान का उपाय नहीं करते। सो तत्त्वज्ञान के बिना महाव्रतादि का आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पाता है और तत्त्वज्ञान होने पर कुछ भी व्रतादिक नहीं हैं तथापि असंयत सम्यग्दृष्टि नाम पाता है। इसलिये पहले तत्त्वज्ञान का उपाय करना, पश्चात् कषाय घटाने के लिये बाह्य साधन करना। __ - मो. मा. प्र. २३८ कितने ही जीव अणुव्रत-महाव्रतादिरूप यथार्थ आचरण करते हैं; और आचरण के अनुसार ही परिणाम हैं, कोई माया-लोभादिक का अभिप्राय नहीं है; उन्हें धर्म जानकर मोक्ष के अर्थ उनका साधन करते हैं, किन्हीं स्वर्गादिक के भोगों की इच्छा भी नहीं रखते; परन्तु जो मोक्ष का साधन है उसे जानते भी नहीं, केवल स्वर्गादिक ही का साधन करते हैं। - मो. मा. प्र. २४१ कितने ही जीव तो ऐसे हैं तो तत्त्वादिक के भलीभांति नाम भी नहीं जानते, केवल व्रतादिक में ही प्रवर्तते हैं। कितने ही जीव ऐसे हैं जो पूर्वोक्त-प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान (अन्यथा सम्यग्दर्शन और अन्यथा ज्ञान) का यथार्थ साधन करके व्रतादि के प्रवर्तते हैं। यद्यपि वे व्रतादिक का यथार्थ आचरण करते हैं तथापि श्रद्धान-ज्ञान के बिना सर्व आचरण मिथ्या चारित्र ही है। - मो. मा. प्र. २४२ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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