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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार] अर्थात् चोरी, काम अर्थात् मैथुन, मूर्छा अर्थात् परिग्रह, ये पाँच स्थूल पाप है। इन स्थूल पापों से विरक्त होना अणुवत है। भावार्थ :- मारने के संकल्प से जो त्रस जीवों की हिंसा का त्याग है,वह स्थूल हिंसा का त्याग है। जिस वचन से अन्य प्राणी का घात हो जाये, धर्म बिगड़ जाये, अपवाद-निन्दा हो जाये, कलह-संक्लेश, भय आदि प्रकट हो जाये - ऐसा वचन क्रोध, अभिमान, लोभ के वश होकर कहने का त्याग करना, वह स्थूल असत्य का त्याग है। बिना दिया अन्य के धन का लोभ के वश होकर व छल करके ग्रहण करने का त्याग करना, वह स्थूल चोरी का त्याग है। अपनी विवाही स्त्री के सिवाय अन्य समस्त स्त्रियों में कामभाव की अभिलाषा का त्याग करना. वह स्थल काम त्याग है। दश प्रकार के परिगह का प्रमाण करके अधिक परिगह के ग्रहण करने का त्याग करना, वह स्थूल परिग्रह त्याग है। इस प्रकार पाप आने के परनाले ये पाँच पाप हिंसादि हैं, उनका त्याग ही पाँच अणुवत हैं। अब अहिंसा अणुव्रत का स्वरुप कहनेवाला श्लोक कहते हैं: सङकल्पात्कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः ।।५३ ।। अर्थ :- जो गृहस्थ मन-वचन-काय पूर्वक कृत-कारित-अनुमोदनारुप संकल्प से चर प्राणी दो इंद्रियादि त्रस जीवों का घात नहीं करता है, उसे निपुण पुरुष अर्थात् गणधर देव स्थूल हिंसा से विरक्त कहते है। यहाँ ऐसा जानना - जो गृहस्थ सम्यग्दर्शन सहित है,दयावान है,हिंसा से भयभीत है, त्याग करने की भावना है - त्याग के सम्मुख है, तो भी उससे एकेन्द्रिय जो पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीव है, उनकी हिंसा का त्याग तो बन नहीं सकता है। त्रस और स्थावर दोनों की हिंसा का त्याग तो गृहत्यागी,जो मुनीश्वर हैं, उनसे ही बन सकता है। गृहस्थ के प्रत्याख्यानावरण आदि कषायों के उदय से गृह से ममता छूटी नहीं है,फिर भी त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा के त्याग से भगवान् ने उसके अहिंसा अणुवत कहा है। संकल्पी हिंसा का त्याग इस प्रकार जानना - दयावान गृहस्थ अपने परिणामों द्वारा मारने के भावरुप संकल्प से तो त्रसजीवों का घात कभी करता नहीं है,कराता नहीं है, घात करने की मन-वचन-काय से कभी प्रशंसा करता नहीं है,ऐसे परिणाम रखता है। यदि कोई दुष्टजीव बैर या ईर्ष्या आदि से मारना चाहे, आजीविका धन आदि छीनना चाहे तो वह उसका भी घात नहीं करना चाहता है।उसे बहुत धन देकर भी यदि कोई किसी का घात कराना चाहे तो वह संकल्प पूर्वक चींटी मात्र को भी कभी नहीं मारता है। यदि एक जीव को मारने से उसका रोग आपत्ति आदि दूर हो सकती हो तो भी जीने के लोभ से वह त्रस जीवों का घात नहीं करता है। हिंसा से अत्यन्त भयभीत रहता है, तो भी गृहस्थी के आरम्भ में त्रस जीवों का घात हुए बिना नहीं रहता है; इसी कारण से गृहस्थ मारने के संकल्प से की जाने वाली त्रस हिंसा का त्याग करता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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