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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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अब सम्यक्त्व के प्रभाव से तीर्थंकर होते हैं, ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं :
अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूत पादाम्भोजाः ।
दृष्ट्या सुनिश्चितार्थाः वृषचक्रधराः भवन्ति लोकशरण्याः।।३९ ।। अर्थ :- जिन पुरुषों ने सम्यग्दर्शन पूर्वक पदार्थों का सच्चा निर्णय किया है, वे अमरपति, असुरपति, नरपति, संयमियों के पति गणधरादि के द्वारा वन्दनीक हैं चरणकमल जिनके तथा लोगों को उत्कृष्ट शरणभूत हैं, ऐसे धर्मचक्र के धारक तीर्थंकररूप से उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ :- सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थंकर होकर अनेक जीवों के संसार के दुःख का छेदन करने वाले धर्मचक्र को प्रवर्तित कराते हैं, जिनके चरणों की इन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र , गणधर आदि नित्य वन्दना करते हैं, जीवों को परमशरण हैं। अब सम्यग्दृष्टि को ही निर्वाण प्राप्त होता है, ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं :
शिवमजरमरूजमक्षयमव्याबाधं विशोकभयशंकम । ___ काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ।।४०।। अर्थ :- जिनको सम्यग्दर्शन ही शरण है, वे पुरुष शिव अर्थात् निराकुलता लक्षण रूप जो मोक्ष है उसका अनुभव करते हैं। कैसा है शिव ? जिसमें जरा अर्थात् बुढ़ापा नहीं है, अनंतकाल में भी जहाँ पर आत्मा पुराना-कमजोर नहीं होता है, जीर्ण नहीं होता है; अरुज अर्थात् जहाँ पर कोई रोग, पीड़ा, व्याधि नहीं है; अक्षय अर्थात् जहाँ पर अनन्त चतुष्टयरूप स्वरूप का अभाव-नाश नहीं होता है; जहाँ पर किसी भी प्रकार की कोई बाधा नहीं है; जहाँ पर शंका, भय, शोक आदि दर हो गये हैं अर्थात शोक-भय-शंका रहित है; सख और ज्ञान के वैभव की पराकाष्ठा परमहद्द को जहाँ पर प्राप्त कर लिया है; द्रव्यकर्म-भावकर्मनोकर्म ऐसे ज्ञानावरणादि-रागद्वेषादि-शरीरादि कर्ममल के अभाव से विमल हैं, ऐसे अद्वितीयस्वरूप मोक्ष को सम्यग्दृष्टि ही अनुभव करता है – भोगता है प्राप्त करता है। इस प्रकार सम्यक्त्व के प्रभाव का वर्णन किया।
अब सम्यग्दर्शन अधिकार पूर्ण करते हुए सम्यग्दर्शन की महिमा का उपसंहार श्लोक द्वारा कहते हैं :
देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् ।
धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्याः ।।४।। अर्थ :- जिनेन्द्र परमात्मा के स्वरूप में भक्तिरूप अनुराग जिसे होता है, वह भव्य सम्यग्दृष्टि है। वह सम्यग्दृष्टि इस मनुष्यभव से जाकर स्वर्गलोक में अप्रमाण-अमाप ऋद्धि सुख वैभव के प्रभाव वाले देवेन्द्रों के समूह की महिमा प्राप्त करके, पश्चात् इसी पृथ्वी पर आकर बत्तीस हजार राजाओं के मस्तक द्वारा पूज्य राजेन्द्र चक्रवर्ती के चक्र को प्राप्त करके, फिर अहमिन्द्रलोक की महिमा को भी पाकर समस्त लोक को अपने आधीन किया जिसने ऐसे भगवान तीर्थंकर का धर्मचक्र प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन का धारी जीव इसी क्रम से निर्वाण प्राप्त करता है।
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