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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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सम्यग्दृष्टि की विचारधारा : इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म के अभाव से सच्चा श्रद्धान व सच्चा ज्ञान प्रकट होता है तथा अनंतानुबंधी कर्म के अभाव से सम्यग्दृष्टि के स्वरूपाचरण चारित्र प्रकट होता है । यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण के उदय से देशचारित्र नहीं हुआ है, तथा प्रत्याख्यानावरण के उदय से सकलचारित्र नहीं प्रकट हुआ हैं; तथापि सम्यग्दृष्टि के ऐसा दृढ़ भेद - विज्ञान होता है कि शरीर आदि परद्रव्य हैं तथा रागद्वेष आदि कर्मजनित परभाव हैं। अपने ज्ञानदर्शनरूप ज्ञानस्वभाव में ही आत्मबुद्धि करता है, पर्याय में आत्मबुद्धि तो वह स्वप्न में भी नहीं करता है।
वह ऐसा विचार करता
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हे आत्मन् ! तू भगवान् के परमागम की शरण ग्रहण करके ज्ञान दृष्टि से अवलोकन कर । आठ प्रकार का स्पर्श, पांच प्रकार का रस, दो प्रकार का गंध, पांच प्रकार का वर्ण ये तुम्हारा रूप नहीं है, ये पुद्गल का रूप है। क्रोध, मान, माया, लोभ ये तुम्हारा रूप नहीं हैं, ज्ञानदृष्टि से देखने पर ये कर्म के उदयजनित विकार दिखाई पड़ते हैं। हर्ष, विषाद, मद, मोह, शोक, भय, ग्लानि, काम आदि कर्मजनित विकार हैं, वे तुम्हारे स्वरूप से भिन्न हैं । नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव-ये चार गति आत्मा का रूप नहीं है, कर्म के उदयजनित हैं, विनाशीक हैं। देव, मनुष्य आदि तुम्हारा रूप नहीं हैं।
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सम्यग्ज्ञानी ऐसा विचार करता है - मैं गोरा नहीं, मैं श्याम नहीं, मैं राजा नहीं, मैं रंक नहीं, मैं बलवान नहीं, मैं निर्बल नहीं, मैं स्वामी नहीं, मैं सेवक नहीं, में रूपवान नहीं, मैं कुरूप नहीं, मैं पुण्यवान नहीं, मैं पापी नहीं, मैं धनवान नहीं, मैं निर्धन नहीं, मैं ब्राह्मण नहीं, मै क्षत्रिय नहीं, मैं वैश्य नहीं, मैं शूद्र नहीं, मैं स्त्री नहीं, मैं पुरुष नहीं, मैं नुंपसक नहीं, मैं मोटा नहीं, मैं दुबला नहीं, मैं नीच जाति का नहीं, मैं उच्च जाति का नहीं, मैं कुलवान नहीं, मैं कुलहीन नहीं, मैं पंडित नहीं, मैं मूर्ख नहीं, मैं दाता नहीं, मैं याचक नहीं, गुरु नहीं, मैं शिष्य नहीं, मैं इंद्रिय नहीं, मैं देह नहीं, मैं मन नहीं ये सभी कर्म के उदय जनित पुद्गल के विकार हैं । मेरा स्वरूप तो ज्ञाता दृष्टा है । ये रूप आत्मा का नहीं, पुद्गल का है। मुनिपना- क्षुल्लकपना भी पुद्गल का भेष है। ये लोक हमारा नहीं, ये देश, ग्राम, ये नगर सभी परद्रव्य हैं। कर्म ने मुझे यहाँ उत्पन्न करा दिया है - मैं किस-किस क्षेत्र को अपना मानूं, अपनेपन का संकल्प करूं ? सम्यग्दृष्टि के ऐसा दृढ़ विचार होता है।
मिथ्यादृष्टि की विचारधारा - मिथ्यादृष्टि परकृत पर्याय (शरीर) अपनापन मानता I मिथ्यादृष्टि का अपनत्व जाति में, कुल में, देह में, धन में, राज्य में, ऐश्वर्य में, महल में, मकान में, कुटुम्ब में है । इनके साथ ही हमारी घटी, हमारी बढ़ी हमारा सर्वस्व समाप्त हुआ, मैं नीचा हुआ, मैं ऊँचा हुआ, मैं मरा, मैं जिया, मेरा तिरस्कार हुआ, मेरा सब कुछ गया इत्यादि पर वस्तु में अपनेपने का संकल्प करके महा आर्तध्यान रौद्रध्यान करके दुर्गति को पाकर संसार परिभ्रमण ही करता है।
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मिथ्यादृष्टि जीव जिनधर्म का कुछ अधिकार पाकर - कुछ ज्ञान प्राप्त करके अपने नये-नये परिणामों से काल्पनिक युक्तियाँ बनाकर, लोगों में भ्रम उत्पन्न करके, पांच आदमियों में अपने को महान ज्ञानी
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