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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार]
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अर्थ :- जो पुरुष सम्यग्दर्शन से पवित्र हैं, वे मनुष्यों के तिलक अर्थात् समस्त मनुष्यों को शोभित करनेवाले, समस्त मनुष्यों के मस्तक के ऊपर धारण किये जाने योग्य, ऐसे मनुष्यों के तिलक होते हैं। और कैसे होते हैं ? ओज अर्थात् पराक्रम, तेज अर्थात् प्रताप, विद्या अर्थात् समस्त लोक में अतिशय रूप ज्ञान,वीर्य अर्थात् अतिशयरूप शक्ति, उज्ज्वल यश, वृद्धि अर्थात् दिन प्रतिदिन गुणों की और सुख की वृद्धि, विजय अर्थात् सब प्रकार से जीत, अतिशयरूप वैभव-इस प्रकार ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय, वैभव इन सभी गुणों के स्वामी होते हैं। महान कुल के स्वामी होते हैं, महान धर्म, महान अर्थ, महाकाम, महामोक्षरूप चार पुरुषार्थों के स्वामी होते हैं। सम्यग्दर्शन को ग्रहण करने से ऐसे असीम अप्रमाण प्रभाव के धारी मनुष्य होते हैं। अब सम्यक्त्व के प्रभाव से देवों का वैभव प्राप्त होता है यह कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
अष्टगुणपुष्टितुष्टाः दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः ।।
__ अमराप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ।।३७।। अर्थ :- जिनेन्द्र के भक्त सम्यग्दृष्टि देवों में जन्म लेकर अप्सराओं के समूह के बीच में चिरकाल तक रमते हैं – सुख भोगते हैं। कैसे होकर रमते हैं ? अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व – जो ये आठ गुण है, उनकी पुष्टता अर्थात् जो अन्य असंख्यात देवों में नहीं पाई जावे ऐसी अधिकता से संतुष्ट होकर रमते हैं; तथा सब देवों से उत्कृष्ट ऐसी कांति, तेज, यश से शोभायमान होकर स्वर्गलोक में आनंदपूर्वक निवास करते हैं।
भावार्थ :- अव्रत-सम्यग्दृष्टि स्वर्ग में देव होता है किन्तु हीन पुण्यवाला नहीं होता हैं। इन्द्र के समान वैभव, कांति, ज्ञान, सुख, ऐश्वर्य का धारक, महर्द्धिक देव होता है। इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपालादि देवों में उत्पन्न होता हैं। अन्य असंख्यात देवों के ऐसी अणिमा आदि ऋद्धि, देह की कांति, आभरण, विमान, विक्रिया नहीं होती है - ऐसा उत्कृष्ट वैभव पाकर असंख्यात काल-वर्षों तक करोड़ों अप्सराओं की सभा में केलि करता है।
अब सम्यग्दृष्टि सागरों पर्यन्त स्वर्ग के इंद्रियजनित सुख भोगकर मनुष्यलोक में आकर कैसा होता है ? यह कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् ।
वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशाः क्षत्रमौलिशेखरचरणाः ।।३८।। अर्थ :- जिनके उज्ज्वल सम्यग्दर्शन है वे जीव स्वर्गलोक में आयु पूर्व व्यतीत करके, यहाँ मनुष्यलोक में आकर, नवनिधि चौदह रत्नों के स्वामी, समस्त भरतक्षेत्र के बत्तीस हजार देशों के मालिक, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तक के ऊपर मुकुटरूप हैं चरण जिनके, ऐसे चक्र को प्रवर्तन करने की सामर्थ्य वाले चक्रवर्ती होते हैं।
भावार्थ :- सम्यग्दृष्टि स्वर्ग से मनुष्यभव में आकर नवनिधि चौदह रत्नों का स्वामी, छ:खण्ड पृथ्वी का पति तथा समस्त राजाओं के ऊपर जिसकी आज्ञा चलती है, ऐसा चक्रवर्ती होता है।
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