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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार]
[७३ जिनेन्द्र की जो आज्ञा है, उनको पालने की यदि सामर्थ्य हो तो आप उसका आचरण करे-पाले; और यदि उस आज्ञा को पालने की सामर्थ्य नहीं हो तो उसका सत्य श्रद्धान ही करे। केवली जिनेन्द्र ने, उस श्रद्धान करनेवाले के सम्यक्त्व है, ऐसा कहा है।२२।
रत्नत्रय रहित देह-जाति-कुल भी सम्यग्दृष्टि के द्वारा वन्दने योग्य नहीं हैं। सम्यग्दर्शन आदि गुण रहित श्रावक और मुनि भी वन्दन योग्य नहीं हैं। रत्नत्रय के प्रभाव से देह-कुलजाति भी वन्दनीय हो जाते हैं।२७।
अब इस जीव का सर्वोत्कृष्ट उपकार करनेवाला और अपकार करनेवाला कौन है ? यह कहने के लिये श्लोक कहते हैं :
न सम्यक्त्व समं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।।४।। अर्थ :- जीवों का सम्यग्दर्शन के समान तीनों काल और तीनों लोकों में अन्य कोई कल्याण करनेवाला नहीं है; तथा मिथ्यात्व के समान तीनों कालों और तीनों लोकों में अन्य कोई अकल्याण करनेवाला नहीं है।
भावार्थ :- अनन्तकाल तो व्यतीत हो गया, वर्तमानकाल एक समय और अनन्तकाल आगे आवेगा-ऐसे तीन काल में; अधोभुवन-लोक, असंख्यात द्वीप सागर पर्यन्त मध्यलोक, और स्वर्गादि ऊर्ध्वलोक-ऐसे तीन लोक में; सम्यक्त्व समान जीवों का सर्वोत्कृष्ट उपकार करनेवाला अन्य कोई है नहीं, हुआ नहीं और होगा नहीं। जो उपकार इस जीव का सम्यक्त्व करता है वैसा उपकार तीन लोक में हुए इन्द्र, अहमिन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, तीर्थंकर आदि समस्त चेतन और मणि, मंत्र, औषधि आदि समस्त अचेतन द्रव्य कोई नहीं करता है। इस जीव का निकृष्टतम अपकार जैसा मिथ्यात्व करता है वैसा अपकार करनेवाला तीन लोक में तीन काल में कोई चेतन द्रव्य व अचेतन द्रव्य है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं। इसलिये मिथ्यात्व के त्याग में ही परम यत्न करो। समस्त संसार के दुःख को दूर करनेवाला , आत्मकल्याण की परमहद्द एक सम्यक्त्व ही है, अतःइसी के प्राप्त करने में पुरुषार्थ करो। अब सम्यग्दर्शन के प्रभाव का वर्णन करनेवाला श्लोक कहते हैं -
सम्यग्दर्शनशुद्धाः नारकतिर्यङ्नपुंसकत्रीत्वानि ।
दुष्कुलविकृताल्पायुः दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः ।।३५ ।। अर्थ :- जो जीव सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं, वे व्रत रहित होने पर भी नारकी, तिर्यंच , नपुंसक व स्त्रीपने को प्राप्त नहीं होते हैं; नीचकुल में जन्म, विकृत अर्थात् अंधा, काना, बहरा, टूटा, लूला, लंगड़ा, गूंगा, कुबड़ा, बौना-ठिगना, हीन अंग, अधिक अंग, मांजराकंजा, विप-अभद्र नहीं होते हैं, तथा अल्प ? आयु के धारक व दरिद्रपने को प्राप्त नहीं होते हैं।
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