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________________ ७२] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ण वि देहों वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइ संजुत्तो । को वंदमि गुण हीणो ण हु सवणो णेय सावणो होइ ।। २७ ।। अर्थ :- जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं, उनका अनंतकाल में भी निर्वाण नहीं होगा जिनका सम्यग्दर्शन तो नहीं छूटा किन्तु चारित्र से भ्रष्ट हो गये हैं, वे तीसरे भव में निर्वाण को प्राप्त करेंगे। सम्यक्त्व छूट जाने पर अनंतभव में भी संसार भ्रमण से नहीं छूटते हैं । ३ । जो सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट हैं, वे बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानते हुए भी, चारों आराधना से रहित होने के कारण संसार ही में भ्रमण करते हैं । ४ । जो सम्यक्त्व से रहित हैं, वे हजार करोड़ वर्ष तक अच्छी तरह उग्र तप का आचरण करते हुए भी रत्नत्रय के लाभ को नहीं प्राप्त कर सकते हैं।५। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे ज्ञान के संबंध में भी विपरीत ज्ञानी होकर भ्रष्ट ही हैं। जिनका आचरण भी भ्रष्ट वे तो भष्टों से भी भ्रष्ट हैं, जो इनकी संगति करते हैं, ये उन्हें भी धर्म रहित करके नष्ट कर देते हैं । ८ । जैसे वृक्ष की मूल अर्थात् जड़ का नाश हो जाने पर उसकी डाली, पत्ते, फूल, फल आदि परिवार की वृद्धि नहीं होती है, वैसे ही जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे मूल से ही भ्रष्ट हैं; उन्हें ज्ञान, चारित्र, निर्वाण की सिद्धि कैसे होगी ? १० । जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और सम्यग्दर्शन के धारकों को अपने पैरों में पड़वाना चाहते हैं, वे परलोक में (अगले भव में ) चरण रहित लूले तथा वचन रहित गूंगे होते हैं। जो स्वयं तो सम्यग्दर्शन से रहित हैं किन्तु अन्य सम्यग्दृष्टियों से अपनी वंदना नमस्कार कराते हैं तथा कराना चाहते हैं वे बहुत काल तक एकेन्द्रिय होते हैं । १२ । जो मिथ्यादृष्टि को जान करके भी उनके चरणों में लज्जा से, गारव अर्थात् अभिमानबड़प्पन से, भय से वन्दना करते हैं उन्हें भी मिथ्यात्व पाप की अनुमोदना करने से रत्नत्रय की प्राप्ति दुर्लभ है । १३ । सम्यग्दृष्टि को यह जिनेन्द्र का वचन ही अमृतरूप औषधि है जो विषय सुखरूप आमाशय का विरेचन करानेवाला है, जरा - मरणरूप व्याधि को दूर करने का कारण है, तथा संसार के समस्त दुःखों के क्षय का कारण है । सम्यग्दृष्टि के ऐसा निश्चय है कि जन्मजरा-मरण आदि समस्त दुःखोंरूप रोगों को दूर करनेवाली अमृतरूप औषधि तो जिनेन्द्र का वचन ही है। इस औषधि के बिना अनादिकाल के विषयों की चाहरूप दाह को नाश करनेवाला, आमाशय को धोकर ज्ञान सुख आदि अंगों को पुष्ट करनेवाला अमृत के समान अन्य कोई दूसरा उपाय है ही नहीं ।१७। एक रूप तो जिनेन्द्र का धारण किया हुआ समस्त वस्त्र-शस्त्रादि रहित नग्न रूप है; दूसरा रूप उत्कृष्ट श्रावक का एक कोपीन तथा खण्ड वस्त्र सहित है; तीसरा आर्यिका का भेष है। चौथा रूप-भेष- लिंग जिनमत में नहीं है । अन्य जो भेष हैं वे जिनधर्म बाह्य हैं, वन्दन योग्य नहीं है । १८ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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