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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार]
[६९ इसका उत्तर कहते हैं - दूसरे के द्वारा बलजोरी से जबरदस्ती से नमस्कार करा लेने से श्रद्धान नहीं बिगड़ जाता है, क्योंकि देवता आदि के भय से. आशा से. स्नेह से. लोभ से नमस्कार करता है तो श्रद्धान बिगड़ जाता है। जबरदस्ती से तो यदि दुष्ट-म्लेच्छ आदि व्रती के मुख में अभक्ष्य रख दें तो भी व्रत नहीं बिगड़ता है। अन्यमतों के ग्रन्थों में शब्दों मेंवाक्यों में कुदेवों को नमस्कार लिखा है, कुदेवों की स्तुति लिखी है तो उन ग्रन्थों के पढ़नेमात्र से कुदेवों को नमस्कार स्तुति नहीं हो जायेगी।
__सम्यग्दर्शन तो आत्मा का भाव है। यदि अपने भावों में उन कुदेवादि को वंदना योग्य मानकर तथा अपने को उनका वंदन करनेवाला मानकर नमस्कार-स्तवन-वंदना करता है; तथा उनसे अपने भला होना जानता है तो उसके सम्यक्त्व का अभाव है।
इस काल में म्लेच्छ-मुसलमान ही राजा हैं; जब वे कुछ पूंछते हैं और आप उनसे कुछ कहना चाहते हैं तो हाथ जोड़कर ही कुछ कहा जाता है। इसमें अपना श्रद्धान-ज्ञान नष्ट नहीं होता है। चारित्रधारी त्यागी-साधजन हैं वे कभी हाथ भी नहीं जोडते तथा उनके शरीर के खण्ड-खण्ड भी कर दें तो भी धर्म कार्य के बिना कुछ भी नहीं बोलते। त्यागियों से दुष्ट मनुष्य-म्लेच्छ राजादि महापापी भी प्रणाम नहीं कराना चाहते हैं। इसलिये संयमी तो राजा को, चक्रवर्ती को, माता को, पिता को, विद्यागुरू को भी नमस्कार नहीं करते हैं, ये द्विजन्मा हैं।
__ अव्रत-सम्यग्दृष्टि भी अपने वश से कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को नमस्कार नहीं करता है; अन्य व्यवहारीजनों की यथायोग्य विनय-सत्कार आदि करता है। दूसरे की जबरदस्ती किये जाने पर देश छोड़ देता है, आजीविका छोड़ देता है, धन का त्याग कर देता है परन्तु कुधर्म का सेवन, कुदेव आदि की आराधना नहीं करता है। अब रत्नत्रय में भी सम्यग्दर्शन की श्रेष्ठता दिखानेवाला श्लोक कहते हैं -
दर्शनं ज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते । ___ दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ।।३१।। अर्थ :- ज्ञान और चारित्र से सम्यदर्शन अधिक उच्च अर्थात् साधिमान-सर्वोत्कृष्ट है, ऐसा जानकर उसे प्राप्त करने का पुरूषार्थ करना चाहिये। इसी कारण से मोक्ष के मार्ग में सम्यग्दर्शन को कर्णधार कहा है। जैसे समुद्र में जहाज को खेवटिया पार करता है उसी प्रकार अपार संसारसमुद्र में रत्नत्रयरूप जहाज को पार करने में सम्यग्दर्शन खेवटिया है।
भावार्थ :- रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन ही अति उत्कृष्ट हैं - अब सम्यग्दर्शन के उत्कृष्टपने का हेतु कहने को श्लोक कहते हैं -
विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।।३२।। अर्थ :- जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय सम्यक्त्व के अभाव में नहीं होता है।
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