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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार राजा के भय से, माता-पिता के भय से, कुटुम्ब के भय से तथा लोकलाज के भय से कुदेवों की वंदना नहीं करता है।
इसी प्रकार जो शास्त्र राग, द्वेष, हिंसा का पोषण करनेवाले हैं, श्रृंगार कथा, युद्ध कथा, स्त्री कथा आदि विकथा कहनेवाले; वस्तु का एकांतरूप कथन करनेवाले; यज्ञ, होम, मंत्र, तंत्र, यंत्र, वशीकरण, मारण, उच्चाटन आदि महाहिंसा के आरंभ के कहने वाले; कुदेव कुधर्म की आराधना करनेवाले-करानेवाले, संसार में उलझानेवाले शास्त्रों को सम्यग्दृष्टि वंदना-सत्कार नहीं करता है। उनके कथन की, रचना की प्रशंसा नहीं करता है; संसार में उलझानेवाले शास्त्र का व्याख्यान आदि कर विख्यात नहीं करता; भय, आशा, स्नेह, लोभ से खोटे आगम की प्रसिद्धि नहीं करता है। ___मैं, मेरे पिता, दादा आदि ने इन शास्त्रों से बहुत द्रव्य कमाया है, आगे भी में इन शास्त्रों से बहुत धन कमाऊँगा, मैं अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाऊँगा, जगत के मान्य हो जाऊँगा, राजादि को अपना सेवक बना लूँगा - ऐसे लोभ से सम्यग्दृष्टि कुशास्त्रों का सेवन नहीं करता है। ___यदि मैं इन शास्त्रों का सेवन नहीं करूँगा तो मेरी आजीविका नष्ट हो जायेगी, लोक में मेरी मान्यता घट जायेगी, पूज्यता घट जायेगी ऐसे भय से कुशास्त्रों का सेवन नहीं करता है।
इस शास्त्र के पढ़ने में बड़ा रस है, मन प्रसन्न हो जाता है, बड़ी रसीली कथा है तथा लोगों को प्रसन्न करनेवाला है ऐसे स्नेह से भी सम्यग्दृष्टि कुशास्त्रों की आराधना नहीं करता है।
किसी प्रकार की आशा से भी सम्यग्दृष्टि कुशास्त्रों का सेवन नहीं करता है। इस शास्त्र को पढ़ने से देवता वश में हो जायेगा, विद्या सिद्ध हो जायेगी, इत्यादि इसलोक सम्बन्धी आशा से भी कुशास्त्रों की प्रशंसा-वंदना नहीं करता है।
सम्यग्दृष्टि भय, आशा, स्नेह, लोभ से कुलिंगी साधुओं की भी वन्दना, प्रणाम, प्रशंसा नहीं करता है। यह ऊँचा तपस्वी है, बहुत ज्ञानी है, राज्य मान्यता है, लोक में बड़ा आदर है, इसमें दृष्टि-मुष्टि-मारण-उच्चाटन आदि अनेक शक्तियाँ हैं, कभी मेरा कुछ बिगाड़ न कर दे ऐसे भय से प्रणाम आदि नहीं करता है।
यह बड़ा करामाती है, विद्यावान है, इससे कोई विद्या सीखनी है, ये राजमान्य है, इससे अभी अपना काम निकालना है ऐसे लोभ से भी सम्यग्दृष्टि पाखंडी साधुओं को वंदना, नमस्कार नहीं करता है। इस वेषधारी ने मुझे रसायन देने को कह रखा है, इससे मुझे अभी एक औषधि बनाना सीखना है, व्याकरण-न्याय-ज्योतिष विद्या अभी इससे सीखना है इसलिये अभी इसकी सेवा करना है; इत्यादि आशा, लोभ से पाखण्डी, विषयी, आरम्भी, परिग्रहधारी को सम्यग्दृष्टि नमस्कार नहीं करता है, प्रशंसा नहीं करता है। उसे सत्यवादी नहीं कहता है, उसे धर्मरूप नहीं मानता है।
अब यहां कोई प्रश्न करता है – यदि कोई बलवान व्यक्ति जबरदस्ती नमस्कार करावे, और यदि नहीं करे तो बड़ा उपद्रव हो जावे, तब क्या करना चाहिये ?
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