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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
भावार्थ :- यदि बीज ही नहीं हो तो वृक्ष कैसे उत्पन्न होगा ? और यदि वृक्ष ही नहीं पैदा हुआ तो स्थिति किसकी होगी ? वृद्धि किसकी होगी ? फल कहाँ लगेंगे ? यदि सम्यक्त्व नहीं हो तो ज्ञान-चारित्र भी नहीं होंगे। सम्यक्त्व के बिना ज्ञान कुज्ञान है और चारित्र कुचारित्र है । सम्यक्त्व के बिना जब ज्ञान - चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं होगी तो स्थिति कहाँ से होगी, और ज्ञान - चारित्र की वृद्धि कैसे होगी, तथा ज्ञान - चारित्र का फल जो सर्वज्ञ परमात्मारूप होना है, वह कैसे हो सकेगा ? इसलिये सम्यक्त्व के बिना सच्चे श्रद्धान-ज्ञानचारित्र कभी भी नहीं हो सकेंगे, यही कथन भगवान गुणभद्र आचार्य महाराज ने आत्मानुशासन में किया है -
शमबोधवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः ।
पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ।।१५।।
अर्थ :- शम अर्थात् कषायों की मंदता होना, बोध अर्थात् अनेक शास्त्रों का प्रबल ज्ञान होना, व्रत अर्थात् तेरह प्रकार दुर्द्धर चारित्र का पालना, कायरों से नहीं बन सके ऐसा बारह प्रकार का घोर तप ये चारों ही पुरुष को बड़े भारी हैं, पुरुष को इनका बड़ा भारीपना पत्थर के भारीपने के समान है। ये चारों ही शमभाव - ज्ञान - चारित्र -तप यदि सम्यक्त्व सहित हों तो महान मणि जो चिन्तामणि
उसके समान पूज्य हो जाते हैं।
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भावार्थ :- जगत में अनेक प्रकार का पत्थर भी है, और मणि भी हैं। मणि भी पत्थर ही है, और सामान्य रेतीला - झाझड़ा पत्थर भी पत्थर ही है । परन्तु कांति - चमक से उनमें बड़ा भेद है; दोनों पत्थर होने पर भी पत्थर - पत्थर समान नहीं हैं। झाझड़ा - रेतीला पत्थर तीन मन भी बेच दो तो एक पैसा प्राप्त हो; और यदि मणि - पद्मरागमणि - वज्रमणि ( माणिक और हीरा ) रत्ती - मासा भी हाथ में आ जाये लाखों रुपया प्राप्त हो जाये; अपने पुत्र-पौत्रों तक (तीन पीढ़ी) का दारिद्र दूर हो जाये । उसी प्रकार सम्यक्त्व सहित अल्प भी शमभाव, अल्प भी ज्ञान, अल्प भी चारित्र, अल्प भी तप भाव इस जीव को कल्पवासी इन्द्र आदि में उत्पन्न कराके फिर जन्म-मरण के दुःखों से रहित परमात्मा बना देता है।
सम्यक्त्व बिना बहुत अधिक भी शमभाव, ग्यारह अंग तक का बहुत ज्ञानाभ्यास भी, बहुत उज्ज्वल चारित्र भी, घोररूप किया हुआ तप भी यदि कषायों की मंदता सहित हो तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में तथा अल्पऋद्धिधारी कल्पवासी देवों में उत्पन्न कराकर पुनः चतुर्गतिरूप संसार में भी भ्रमण कराते हैं। इसलिये सम्यक्त्व सहित ही शम, बोध, चारित्र व तप धारण करने से जीव का कल्याण होता है ।
मोही मुनि से निर्मोही श्रावक की श्रेष्ठता अब यहाँ कोई शंका करता है जिसे सम्यक्त्व नहीं है किन्तु चारित्र, तप आदि ग्रहण किये हैं ऐसा मुनि, उस गृहस्थ से जो आरंभ आदि में लीन है, तो उत्तम होगा ? उसे उत्तर देनेवाला श्लोक कहते हैं :
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