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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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अपने प्रमाद से, असंयमभाव से, सांसारिक पापमय प्रवृत्ति से परिणामों में निरन्तर अपनी निन्दा विचारता रहता है। ऐसे दुर्लभ मनुष्य भव का एक क्षण भी धर्म के आश्रय बिना जाता है वह बड़ा अनर्थ है । इस प्रकार अपने परिणामों में अपने दोषोंसहित प्रवर्तने को विचारकर अपने मन में अपनी निंदा करना वह तीसरा आत्मनिन्दा नाम का गुण है । ३ ।
जो अपना गुरू हो, विशेष बहुज्ञानी हो, साधर्मी हो उसके पास जाकर विनय सहित अपने निंद्य दोष आदि प्रकट करना, यह सम्यग्दृष्टि का चौथा गर्हा नाम का गुण है ।४।
सम्यग्दृष्टि के क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की मंदता ही होती है। राग, द्वेष, काम, उन्माद, बैर आदि को सम्यग्दृष्टि अपना घातक जानता है अत ये सब मंद ही करता है,
यही पांचवाँ उपशम गुण है । ५ ।
सम्यग्दृष्टि को पंचपरमेष्ठी में, जिनवाणी में, जिनेन्द्र प्रतिबिंब में, दशलक्षण धर्म में, धर्म के धारी धर्मात्माओं में, तपस्वियों में उनके अनेक गुण स्मरण करके गुणों के अनुराग करना वह सम्यग्दृष्टि में भक्ति नाम का छटवाँ गुण होता ही है । ६ ।
सम्यग्दृष्टि को धर्मात्माओं में प्रेम होता ही है । जैसे दरिद्री को धन का निधान देखकर आनंद होता है उसी प्रकार धर्मात्मा, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी को देखकर, धर्म के व्याख्यान को सुनकर सम्यग्दृष्टि के अत्यन्त आनन्द प्रकट होना वह वात्सल्य नाम का सातवाँ गुण है।७।
सम्यग्दृष्टि को छह काय के जीवों के प्रति दया प्रकट होती ही है। दूसरे जीवों का दुख देखकर अपने परिणाम कंपित हो जाने से स्वयं ही दुःखी हो जाना, तथा दूसरे जीवों का दुःख दूर करने का परिणाम होना वह सम्यग्दृष्टि के आठवाँ अनुकम्पा नाम का गुण है।
इसी प्रकार और भी अनेक गुण सम्यग्दृष्टि के स्वयमेव प्रकट होते हैं क्योंकि जिसे सच्चा श्रद्धानज्ञान प्रकट हो गया उसका सम्पूर्ण बाह्य - आभ्यन्तर गुणरूप होकर ही परिणमता है।
अब जो जीव सम्यग्दर्शन सहित हैं उन्हीं के महानपना है, ऐसा कहने वाला श्लोक कहते हैंसम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवादेवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ।।२८ ।।
अर्थ :- सम्यग्दर्शन सहित, चांडाली के शरीर से उत्पन्न हुआ जो चांडाल है उसे भी गणधरदेव देव कहते हैं, जैसे भस्म से दबे हुए अंगार को अग्नि ही कहते हैं।
भावार्थ :- सम्यग्दर्शन सहित चांडाल को भी भगवान गणधरदेव ने देव कहा है। यह हाड़मांस मय शरीर चांडाल से उत्पन्न हुआ है इसलिये शरीर चांडाल है, परन्तु जिसे सम्यग्दर्शन हुआ हे ऐसा आत्मा तो दिव्य गुणों से शोभित होता है और उसके शरीर को भी उत्तम गुणों के प्रभाव से देव कहा है। जैसे राख से ढका अंगारा है, उसके भीतर उष्णता लिये अग्नि ही होती है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी मलिन देह के भीतर आत्मीक गुणों से शोभित रहता है। इसी कारण श्री स्वामी समन्तभद्र
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