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[ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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आचार्य जी कहते हैं सम्यग्दृष्टि की महिमा हम अपनी तरफ से नहीं कह रहे हैं, जिनेन्द्र भगवान के द्वादशांगरूप आगम में गणधरदेव ने सम्यग्दृष्टि चांडाल को भी देव कहा है।
यह शरीर तो महामलिन मलमूत्र का भरा, हाड़-मांस - चाममय, जिसके नव द्वारों से निरंतर दुर्गन्धित मल झरता रहता है; ऐसा अपवित्र मलिन भी साधुओं का शरीर रत्नत्रय के प्रभाव से इन्द्रादि देवों के दर्शन करने योग्य, स्तवन करने योग्य, नमस्कार करने योग्य हो जाता है। गुणों के बिना चमड़े के, कफ - मल-मूत्र से भरे मलिन शरीर की कौन वंदना करे, पूजे, अवलोकन करे ? यह शरीर तो सम्यग्दर्शन ही से वन्दन - पूजन योग्य होता है।
अब धर्म-अधर्म ( पुण्य और पाप ) का फल प्रगट करनेवाला श्लोक कहते हैं श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् । कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरीरिणाम् ।। २९ ।।
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अर्थ :- धर्म (पुण्य) के प्रभाव से कुत्ता भी स्वर्ग में जाकर देवों में उत्पन्न हो जाता है, और पाप प्रभाव से स्वर्गलोक का महान ऋद्धिधारी देव भी यहाँ आकर कुत्ते के रूप में उत्पन्न हो जाता है । प्राणियों को, वचनों से जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ऐसी अहमिंद्रों की सम्पदा तथा अविनाशी मुक्ति संपदा धर्म के प्रभाव से प्राप्त हो जाती है।
भावार्थ :- मिथ्यात्व के प्रभाव से दूसरे स्वर्ग तक का देव एकइंद्रियों में आकर उत्पन्न हो जाता है, तथा अनन्तानन्त काल तक त्रस - स्थावरों में ही परिभ्रमण करता फिरता है। बारहवें स्वर्ग तक का देव मिथ्यात्व के प्रभाव से पंचेंद्रिय तिर्यंच में आकर उत्पन्न हो जाता है। इसलिये मिथ्यात्व भाव महा अनर्थकारी जानकर सम्यक्त्व का ही प्रयत्न करना योग्य है।
अब कुदेवादि सम्यग्दृष्टि के वंदन योग्य नहीं है ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं :भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागलिङ्गनाम्।
प्रमाणं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।। ३० ।।
भय,
अर्थ :- जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं वे भय से, आशा से, स्नेह से, लोभ से, कुदेव, कुआगम और कुलिंगधारी को प्रणाम नहीं करते हैं। विनय नहीं करते हैं। जो काम, क्रोध, इच्छा क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, मद, मोह, निद्रा, हर्ष, विषाद, जन्म, मरण आदि दोषों सहित हैं वे सब कुदेव हैं। उनका फैलाव इस जगत में पंचमकाल के प्रभाव से बहुत है। अकेले एक सर्वज्ञ अन्तराग के सिवाय शेष सब कुदेव हैं।
हिंसा के पोषक, रागी - द्वेषी - मोही जीवों द्वारा प्रकाशित, पूर्वा-पर दोष सहित, विषयकषाय-आरम्भ के पुष्ट करनेवाले, प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से दूषित ऐसे शास्त्र कुआगम हैं।
हिंसादि पांच पापों के त्यागी, आरंभ परिग्रह रहित, देह के संबंध में निर्मम, उत्तमक्षमादि दशधर्म के धारी, दोष टालकर अयाचक वृत्ति सहित दीनता रहित निर्जन स्थान में बसनेवाले, ध्यान- अध्ययन
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