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________________ ६४] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार वहीं निष्ठापक होता है; तथा सौधर्म आदि स्वर्गों में कल्पातीत अहमिन्द्रों में, भोगभूमि के मनुष्य तिर्यंचों में, धम्मा नामक प्रथम नरक में भी निष्ठापक हो जाता है; क्योंकि जिसे पहले आयुबंध हो चुकी है ऐसा कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि है; मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होकर कहीं भी क्षपणा पूरी कर लेता है। अब अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्व इन सात की क्षपणा कैसे करता है, वह करते हैं – कोई मनुष्य वेदक सम्यग्दृष्टि होकर असंयत, देशसंयत, प्रमत्त , अप्रमत्त इन चार गुणस्थानों में से किसी में भी रहता हुआ पहले कहे तीन करण की विधि करके अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया लोभ के उदयावलि में रहनेवाले निषेकों को छोड़कर और उदयावलि के बाहर के रहे हुए समस्त निषेकों की विसंयोजना करके अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में अनंतानुबंधी के समस्त द्रव्य को बारह कषाय और नौ नोकषायरूप परिणमित कराता है - यह अनन्तानुबंधी की विसंयोजना है। __ इस विसंयोजना में भी गुणश्रेणी निर्जरा और स्थितिकांडकघात आदि बहुत विधि हैं। अनंतानुबंधी की विसंयोजना करने के बाद के अंतर्मुहूर्त काल विश्राम करके कोई क्रिया नहीं की, उसके पश्चात् पुनः तीनों करण करके अनिवृत्तिकरण के काल में मिथ्यात्व , मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय को क्रम से नष्ट करता है। इन करणों की सामर्थ्य से जिस-जिस कर्म की स्थिति अनुभाग का घात होने का विधान है वह श्री लब्धिसारजी से जानना। इस प्रकार सात प्रकृतियों का नाश करके क्षायिक सम्यक्त्वी होता है। यहाँ तीनों प्रकार का सम्यक्त्व होने का यह संक्षेप में वर्णन किया है। सम्यग्दृष्टि के अष्टगुण : सम्यग्दृष्टि के आठ अन्य गुण भी प्रकट होते हैं जिनसे उसका स्वयं का तथा दूसरे का सम्यक्त्व जान लिया जाता है। संवेग १, निर्वेद २, आत्म निन्दा ३, गर्दा ४, उपशम ५, भक्ति ६, वात्सल्य ७, अनुकम्पा ८ – ये आठ गुण जिसमें होते हैं उसे सम्यग्दर्शन ( होता) है, ऐसा जानना सम्यग्दृष्टि को संवेग अर्थात् धर्म से अनुराग होता ही है। संसारी मिथ्यादृष्टि का अनुराग तो शरीर ही से हो रहा है क्योंकि वह चाहता है कि शरीर उज्ज्वल रहे, बलवान रहे, पुष्ट रहे। शरीर से ममत्व होने के कारण ही वह अभक्ष्य भक्षण करके सुख मानता है, अन्याय सहित श्रृंगार आदि द्वारा शरीर को भूषित करके प्रसन्न होता है, पापियों से संबंध रखने में आनंद मानता है, विकथा में अच्छा मन लगता है। स्त्री, पुत्र, धन, सम्पदा में, नगर, देश, राज्य, ऐश्वर्य से अनुराग करता है। सम्यग्दृष्टि की शरीर आदि में आत्मबुद्धि नहीं होती है अतः दशलक्षणधर्म ही में अनुराग करता है। सम्यग्दृष्टि का अनुराग तो धर्मात्मा पुरुषों में, धर्म की कथा में , धर्म के आयतन में होता है। ऐसा संवेग गुण सम्यग्दृष्टि में होता ही है।१। सम्यग्दृष्टि के पंचपरावर्तनरूप संसार से, कृतघ्न शरीर से, दुर्गति में ले जानेवाले भोगों से विरक्तता नियम से होती ही है। यह दूसरा निर्वेद गुण सम्यग्दृष्टि के प्रकट होता ही है।२। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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