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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार [६३ दर्शनमोहनीय के सर्वघाति स्पर्द्धकों के निषेकों के उदय का अभाव वह है क्षय, तथा देशघाति स्पर्द्धकरूप सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने पर भी उसी सम्यक्त्वमोहनीय ही के वर्तमान समय संबंधी निषकों के सिवाय अन्य जो ऊपर के निषेक अभी उदय को प्राप्त नहीं हुए, वे मात्र सत्ता में अवस्थित हैं उसे कहा है उपशम, ऐसी कर्मों की क्षय और उपशमरूप अवस्था होने से क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है। इसी को सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का वेदनअनुभवन होने से वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। यदि उपशम सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त समय पूरा होने के बाद सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ गया तो मिश्र गुणस्थान में जाता है, उस जीव को तत्त्व-अतत्त्व दोनों का मिला हुआ (मिश्र) श्रद्धान होता है। यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ गया तो मिथ्यादृष्टि-विपरीत श्रद्धानी हो जाता है। जैसे ज्वर से पीड़ित पुरुष को मिष्ट भोजन नहीं रुचता है उसी प्रकार इसको अनेकान्तरूप वस्तु का सच्चा स्वरूप, तत्त्वों का सच्चा स्वरूप, रत्नत्रयरूप मोक्ष का मार्ग रूचता है, दशलक्षण रूप धर्म, स्वपर की दयारूप धर्म नहीं रुचता है। यदि उपशम सम्यक्त्व के अंतर्मुहूर्त के काल में से कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक छह आवली अवशेष रहने पर अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी भी एक का उदय हो जाये तो सम्यक्त्व से छूटकर वह जीव सासादन गुणस्थान में आ जाता है; यहाँ पर वह एक समय से लगाकर छह आवली तक रहकर नियम से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इस प्रकार उपशम सम्यक्त्व का अंतर्मुहूर्तकाल पूर्ण होने के पश्चात् चार मार्ग हैं। यदि सम्यक्त्व मोहनीय का उदय हो जाये तो क्षयोपशम सम्यक्त्वी हो जाता है; यदि मिश्र प्रकृति का उदय हो जाये तो मिश्रगुणस्थानी हो जाता है; यदि मिथ्यात्व का उदय हो जाये तो नियम से मिथ्यादृष्टि हो जाता है; और यदि चार अनंतानुबंधी कषायों में से किसी भी एक का उदय हो जाये तो सासादन गुणस्थान में आकर फिर मिथ्यादृष्टि हो जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व : अब क्षायिक सम्यक्त्व होने का संक्षेप में कथन करते हैं- दर्शनमोह के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। दर्शनमोहनीय का क्षय कराने का प्रारंभ कर्मभूमि का मनुष्य ही करता है, भोगभूमि का मनुष्य नहीं कर सकता है; सभी देव-नारकी-तिर्यंचों के भी क्षायिक सम्यक्त्व का आरंभ नहीं होता है। कर्मभूमि का मनुष्य ही दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारंभ करता है; वह भी केवली, श्रुतकेवली व तीर्थंकर केवली के पादमूल के निकट बैठकर ही करता है। दर्शनमोह के क्षय करनेयोग्य विशुद्धता केवली के निकट बैठे बिना नहीं होती है। यहाँ अधःकरण के प्रथम समय से लगाकर जब तक मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय के द्रव्य को सम्यक्त्व प्रकृतिरूप परिणमित कराता है तब तक अंतर्मुहूर्त काल पर्यन्त दर्शनमोहनीय का आरंभ काल कहा है। उस आरंभ काल के अनंतरवर्ती समय से लगाकर क्षायिक सम्यक्त्व के ग्रहण के प्रथम समय में पहले निष्ठापक होता है। जहाँ क्षपणा प्रारंभ की थी कर्मभूमि का मनुष्य Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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