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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ६२ [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार इस प्रकार ये चार कार्य अपूर्वकरण में अवश्य होते हैं। अपूर्वकरण के प्रथम समय संबंधी प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियों का जो अनुभाग सत्व है उससे अपूर्वकरण के अंतिम समय में उसके प्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुणा बढ़ता व अप्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुणा घटता अनुभाग सत्व होता है। यहाँ प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धता होने से प्रशस्त प्रकृतियों का अनंतगुणा तथा अनुभाग काण्डक के माहात्म्य के कारण अप्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तवांभाग अनुभाग अंत के समय में होना संभव है। इन स्थितिखण्डन आदि होने का विधान का कथन बहुत विस्तार से लब्धिसार ग्रन्थ से जानना। यहाँ तो प्रकरणवश संक्षेप में ही लिखा है। अपूर्वकरण में कहे गये स्थिति खण्डन आदि विशेषकार्य यहाँ अनिवृत्तिकरण में भी होते हैं। विशेष इतना जानना - यहाँ समान समयवर्ती अनेक जीवों के परिणाम समान ही होते हैं, क्योंकि जितने अनिवृत्तिकरण के अंतर्मुहूर्त के समय हैं उतने ही अनिवृत्तिकरण के परिणाम हैं। इसलिये प्रति समय एक ही परिणाम होता है। यहाँ जो स्थितिखण्डन व अनुभागखण्डन आदि का प्रारंभ है वह किसी दूसरे अनुपात (प्रमाण) अनुसार ही होता है। अपूर्वकरण संबंधी स्थितिखण्डन आदि तो अपूर्वकरण के अंतिम समय में ही समाप्त हो गये थे। यहाँ पर अंतरकरण विधि भी कही है जो श्री लब्धिसार जी ग्रन्थ से जानना।२। । उपशम सम्यक्त्व : यहाँ यह कहना चाहते हैं कि अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में दर्शन मोहनीय तथा अनंतानुबंधीचतुष्क प्रकृतियों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग का सब प्रकार से उदय होने की अयोग्यतारूप उपशम होने से तत्वार्थों के श्रद्धानरूप (निश्चय) सम्यग्दर्शन को पाकर औपशमिक सम्यग्दृष्टि होता है। वहाँ प्रथम समय में ही द्वितीय अवस्था में रहता हुआ मिथ्यात्व के द्रव्य को स्थितिकाण्डक अनुभागकाण्डल घात बिना ही गुणसंक्रमण का भाग मिलाकर मिथ्यात्व के द्रव्य के तीन भाग-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मोहनीय कर देता है। भावार्थ :- अनादिकाल का दर्शनमोहनीय कर्म एकरूप था उसका द्रव्य करणों के प्रभाव से तीन प्रकार शक्ति रूप अलग-अलग हो जाता है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व होने का कारण पाँच लब्धियों का स्वरूप संक्षेप में कहा है। क्षयोपशम (वेदक) सम्यक्त्व : इस उपशम सम्यक्त्व के रहने का जघन्य (कम से कम) काल तथा उत्कृष्ट ( अधिक से अधिक) काल अंतर्मुहूर्त तक ही है। अंतर्मुहूर्त पूरा होने के बाद नियम से दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों में से किसी भी एक का उदय हो जाता है। यदि सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति का उदय आ गया तो उपशम सम्यक्त्व से छूटकर (पलटकर) वेदक सम्यक्त्व हो जाता है। तब सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वों का चल-मल-अगाढ़ दोषों सहित श्रद्धान करता है। यहाँ श्रद्धान में चलपना का अर्थ है श्रद्धान में शिथिलता आ जाना, तथा मल दोष का अर्थ है अतिचार सहित होना। इस वेदक सम्यक्त्व को ही क्षयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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