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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ६१ षट्कापक्रमविमुक्तस्य मुक्तिवामलोचनालोचनगोचरस्य त्रिलोकशिखरिशेखरस्य अपहस्तितसमस्तक्लेशावासपंचविधसंसारस्य पंचमगतिप्रान्तस्य स्वभावगतिक्रियाहेतु: धर्मः; अपि च षट्कापक्रमयुक्तानां संसारिणां विभावगतिक्रियाहेतुश्च। यथोदकं पाठीनानां गमनकारणं तथा तेषां जीवपुद्गलानां गमनकारणं स धर्मः। सोऽयममूर्त: अष्टस्पर्शनविनिर्मुक्त: वर्णरसपंचकगंधद्वितयविनिर्मुक्तश्च अगुरुकलघुत्वादिगुणाधारः लोकमात्राकार: अखण्डैकपदार्थः। सहभुवो: गुणाः, क्रमवर्तिन: पर्यायाश्चेति वचनादस्य गतिहेतोधर्मद्रव्यस्य शुद्धगुणा: शुद्धपर्याया भवन्ति। अधर्मद्रव्यस्य स्थितिहेतुर्विशेषगुणः। अस्यैव तस्य धर्मास्तिकायस्य गुणपर्यायाः सर्वे भवन्ति। आकाशस्यावकाशदानलक्षणमेव विशेषगुणः। इतरे धर्माधर्मयोर्गुणा: स्वस्यापि सदृशा इत्यर्थः। लोकाकाशधर्माधर्माणां समानप्रमाणत्वे जो छह 'अपक्रमसे विमुक्त हैं, जो मुक्तिरूपी सुलोचनाके लोचनका विषय हैं (अर्थात् जिन्हें मुक्तिरूपी सुंदरी प्रेमसे निहारती है), जो त्रिलोकरूपी 'शिखरीके शिखर हैं ,जिन्होंने समस्त क्लेशके घररूप पंचविध संसारको (-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके परावर्तनरूप पाँच प्रकारके संसारको) दूर किया है और जो पंचमगतिकी सीमापर हैं-ऐसे अयोगी भगवानको स्वभावगतिक्रियारूपसे परिणमति *स्वभावगतिक्रियाका हेतु धर्म है। और छह अपक्रमसे युक्त ऐसे संसारीयोंको वह (धर्म) "विभावगतिक्रियाका हेतु है। जिस प्रकार पानी माछलियोंको गमनका कारण है, उसीप्रकार वह धर्म उन जीव-पुद्गलोंको गमनका कारण (निमित्त) है। वह धर्म अमूर्त, आठ स्पर्श रहित, तथा पाँच वर्ण, पाँच रस और दो गंध रहित, अगुरुलघुत्वादि गुणोंके आधारभूत , लोकमात्र आकारवाला (-लोकप्रमाण आकारवाला), अखंड एक पदार्थ है। “सहभावी गुण हैं और क्रमवर्ती पर्यायें हैं" ऐसा ( शास्त्रका) वचन होनेसे गतिके हेतुभूत इस धर्मद्रव्यको शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं। ___ अधर्मद्रव्यका विशेषगुण स्थितिहेतुत्व है इस अधर्मद्रव्यके (शेष) गुण-पर्यायों जैसे उस धर्मास्तिकायके ( शेष) सर्व गुण-पर्याय होते हैं। आकाशका , अवकाशदानरूप लक्षण ही विशेषगुण है। धर्म और अधर्मके शेष गुण आकाशके शेष गुणों जैसे भी हैं। १ –संसारी जीवोंको अन्य भवमें उत्पन्न होनेके समय ‘छह दिशाओं में गमन' होता है उसे 'छह अपक्रम' कहने में आता है। २ -शिखरी = शिखरवंत; पर्वत। *स्वभावगतिक्रया तथा विभावगतिक्रियाका अर्थ पृष्ठ-२२ पर देखें। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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