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नियमसार
५७
( अनुष्टुभ् ) “वसुधान्त्यचतु:स्पर्शेषु चिन्त्यं स्पर्शनद्वयम्। वर्णो गन्धो रसश्चैक: परमाणो: न चेतरे।।''
तथा हि
(मालिनी) अथ सति परमाणोरेकवर्णादिभास्वनिजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः। इति निजहृदि मत्त्वा शुद्धमात्मानमेकम् । परमसुखपदार्थी भावयेद्रव्यलोकः।। ४१ ।।
अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ। खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ।। २८ ।।
अन्यनिरपेक्षो यः परिणामः स स्वभावपर्यायः। स्कंधस्वरूपेण पुनः परिणामः स विभावपर्यायः ।। २८ ।।
" [ श्लोकार्थ:-] परमाणुको आठ प्रकारके स्पर्शोंमें अन्तिम चार स्पर्शोंमें दो स्पर्श, एक वर्ण, एक गंध और एक रस समझना, अन्य नहीं।"
और (२७ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोकद्वारा भव्य जनोंको शुद्ध आत्मकी भावनाका उपदेश करते हैं ] :
[ श्लोकार्थ:-] यदि परमाणु एकवर्णादिरूप प्रकाशते ( ज्ञात होते) निजगुणसमूहमें है, तो उसमें मेरी ( कोई ) कार्यसिद्धि नहीं है। (अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण, एक गंध आदि अपने गुणोंमें ही है, तो फिर उसमें मेरा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता);-इसप्रकार निज हृदयमें मानकर परम सुखपदका अर्थी भव्यसमूह शुद्ध आत्माको एकको भाये। ४१।
गाथा २८ अन्वयार्थ:-[ अन्यनिरपेक्ष: ] अन्यनिरपेक्ष (अन्यकी अपेक्षा रहित) [ य: परिणामः ] जो परिणाम [ सः ] वह [ स्वभावपर्यायः ] स्वभावपर्याय है [ पुनः ] और स्कंधस्वरूपेण परिणामः ] स्कंधरूप परिणाम [ सः] वह [ विभावपर्यायः ] विभावपर्याय है।
पर्याय पर-निरपेक्ष जो उसको स्वभाविक जानिये। जो स्कंधपरिणति है उसे विभाविकी पहिचानिये।। २८ ।।
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