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जीव अधिकार
( वसंततिलका) संज्ञानभावपरिमुक्तविमुग्धजीव: कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म। निर्मुक्तिमार्गमणुमप्यभिवाञ्छितुं नो जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके।। ३२ ।।
( वसंततिलका) यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे। मजन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः।। ३३ ।।
(मालिनी) असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो न: सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्। हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं
न खलु न खलु मुक्ति न्यथास्त्यस्ति तस्मात्।।३४ ।। [श्लोकार्थ:-] जो जीव सम्यग्ज्ञानभावरहित विमुग्ध ( मोही, भ्रान्त ) है, वह जीव शुभाशुभ अनेकविध कर्मको करता हुआ मोक्षमार्गको लेशमात्र भी वांछना नहीं जानता; उसे लोकमें ( कोई ) शरण नहीं है। ३२।
[श्लोकार्थ:-] जो समस्त कर्मजनित सुखसमूहको परिहरण करता है, वह भव्य पुरुष निष्कर्म सुखसमूहरूपी अमृतके सरोवरमें मग्न होते हुए ऐसे इस अतिशयचैतन्यमय, एकरूप , अद्वितीय निज भावको प्राप्त होता है। ३३।
[ श्लोकार्थ:-] ( हमारे आत्मस्वभावमें ) विभाव असत् होनेसे उसकी हमे चिंता नहीं है; हम तो हृदयकमलमें स्थित, सर्व कर्मसे विमुक्त, शुद्ध आत्माका एकका सतत अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकारसे मुक्ति नहीं है, नहीं है। ३४।
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