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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव अधिकार ( वसंततिलका) संज्ञानभावपरिमुक्तविमुग्धजीव: कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म। निर्मुक्तिमार्गमणुमप्यभिवाञ्छितुं नो जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके।। ३२ ।। ( वसंततिलका) यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे। मजन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः।। ३३ ।। (मालिनी) असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो न: सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्। हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं न खलु न खलु मुक्ति न्यथास्त्यस्ति तस्मात्।।३४ ।। [श्लोकार्थ:-] जो जीव सम्यग्ज्ञानभावरहित विमुग्ध ( मोही, भ्रान्त ) है, वह जीव शुभाशुभ अनेकविध कर्मको करता हुआ मोक्षमार्गको लेशमात्र भी वांछना नहीं जानता; उसे लोकमें ( कोई ) शरण नहीं है। ३२। [श्लोकार्थ:-] जो समस्त कर्मजनित सुखसमूहको परिहरण करता है, वह भव्य पुरुष निष्कर्म सुखसमूहरूपी अमृतके सरोवरमें मग्न होते हुए ऐसे इस अतिशयचैतन्यमय, एकरूप , अद्वितीय निज भावको प्राप्त होता है। ३३। [ श्लोकार्थ:-] ( हमारे आत्मस्वभावमें ) विभाव असत् होनेसे उसकी हमे चिंता नहीं है; हम तो हृदयकमलमें स्थित, सर्व कर्मसे विमुक्त, शुद्ध आत्माका एकका सतत अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकारसे मुक्ति नहीं है, नहीं है। ३४। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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