________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
४०
द्वितीयनरकस्य नारकाः त्रिसागरोपमायुषः। तृतीयस्य सप्त। चतुर्थस्य दश। पंचमस्य सप्तदश। षष्ठस्य द्वाविंशतिः। सप्तमस्य त्रयस्त्रिंशत्। अथ विस्तरभयात् संक्षेपेणोच्यते। तिर्यञ्चःसूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकबादरैकेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकद्वींद्रियपर्याप्तकापर्याप्त कत्रीन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकचतुरिन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकासंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकसंज्ञि पंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदाच्चतुर्दशभेदा भवन्ति। भावनव्यंतरज्योतिः कल्पवासिकभेदाद्देवाश्चतुर्णिकायाः। एतेषां चतुर्गतिजीवभेदानां भेदो लोकविभागाभिधानपरमागमे दृष्टव्यः। इहात्मस्वरूपप्ररूपणान्तरायहेतुरिति पूर्वसूरिभिः सूत्रकृगिरनुक्त इति। दूसरे नरकके नारकी तीन सागरोपमकी आयुवाले हैं, तीसरे नरकके नारकी सात सागरोपमकी आयुवाले हैं, चौथे नरकके नारकी दस सागरोपम, पांचवें नरकके सहत्र सागरोपम, छठवें नरकके बाईस सागरोपम और सातवीं नरकके नारकी तेतीस सागरोपमकी आयुवाले हैं।
अब विस्तारके भयके कारण संक्षेपसे कहनेमें , तिर्यंचोंके चौदह भेद हैं: (१-२) सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (३-४) बादर एकेंद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (५-६) द्वींद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (७-८) त्रींद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (९-१०) चतुरिंद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (११–१२) असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (१३-१४) संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त।
देवोंके चार निकाय ( समूह ) हैं: (१) भवनवासी , (२) व्यंतर , (३) ज्योतिष्क और (४) कल्पवासी।
इन चार गतिके जीवोंके भेदोंके भेद लोकविभाग नामक परमागममें देख लें। यहाँ (इस परमागममें) आत्मस्वरूपके निरूपणमें अंतरायका हेतु होगा इसलिये सूत्रकर्ता पूर्वाचार्यमहाराजने ( वे विशेष भेद ) नहीं कहें हैं।
(अब इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं:]
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com