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नियमसार
३६३
तथा हि
( शार्दूलविक्रीडित) लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभोस्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम्। स्तोतुं के भुवनत्रयेऽपि मनुजाः शक्ताः सुरा वा पुनः जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्तिर्जिनेऽत्युत्सुका।। ३०७ ।।
णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणामसुदं। णच्चा जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ।। १८७ ।।
जिनभावनानिमित्तं मया कृतं नियमसारनामश्रुतम्। ज्ञात्वा जिनोपदेशं पूर्वापरदोषनिर्मुक्तम्।। १८७ ।।
शास्त्रनामधेयकथनद्वारेण शास्त्रोपसंहारोपन्यासोऽयम्।
तथा---
[ श्लोकार्थ:-] जिन प्रभुका ज्ञानशरीर सदा लोकालोकका निकेतन है (अर्थात् जिन नेमिनाथप्रभुके ज्ञानमें लोकालोक सदा समाते हैं-ज्ञात होते हैं), उन श्री नेमिनाथ तीर्थेश्वरका-कि जिन्होंने शंखकी ध्वनिसे सारी पृथ्वीको कम्पा दिया था उनका-स्तवन करने के लिये तीन लोकमें कौन मनुष्य या देव समर्थ है ? (तथापि) उनका स्तवन करनेका एकमात्र कारण जिनके प्रति अति उत्सुक भक्ति है ऐसा मैं जानता हूँ। ३०७।
गाथा १८७ अन्वयार्थ:-[ पूर्वापरदोषनिर्मुक्तम् ] पूर्वापर दोष रहित [ जिनोपदेशं] जिनोपदेशको [ ज्ञात्वा] जानकर [मया] मैंने [निजभावनानिमित्तं] निजभावनानिमित्तसे [नियमसारनामश्रुतम् ] नियमसार नामका शास्त्र [ कृतम् ] किया है।
टीका:-यह, शास्त्रके नामकथन द्वारा शास्त्रके उपसंहार संबंधी कथन है।
सब दोष पूर्वापर रहित उपदेश श्री जिनदेवका । मैं जान , अपनी भावना हित नियमसार सुश्रुत रचा ।। १८७।।
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