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शुद्धोपयोग अधिकार
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केचन मंदबुद्धयः त्रिकालनिरावरणनित्यानंदैकलक्षणनिर्विकल्पकनिजकारणपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपशुद्धरत्नत्रयप्रतिपक्षमिथ्यात्वकर्मोदयसामर्थ्येन मिथ्या-दर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्ग सर्वज्ञवीतरागस्य
पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रयात्मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिन्निन्दन्ति, तेषां स्वरूपविकलानां कुहेतुदृष्टान्तसमन्वितं कुतर्कवचनं श्रुत्वा ह्यभक्तिं जिनेश्वरप्रणीतशुद्धरत्नत्रयमार्गे हे भव्य मा कुरुष्व , पुनर्भक्तिः कर्तव्येति।
मार्ग
(शार्दूलविक्रीडित) देहव्यूहमहीजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीयावने । नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे दृङ्मोहिनां देहिनां जैनं दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे।। ३०६ ।।
कोई मंदबुद्धि त्रिकाल-निरावरण, नित्य आनंद जिसका एक लक्षण है ऐसे निर्विकल्प निज कारणपरमात्मतत्त्वके सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयसे प्रतिपक्ष मिथ्यात्वकर्मोदयके सामर्थ्य द्वारा मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रपरायण वर्तते हुए ईर्षाभावसे अर्थात् मत्सरयुक्त परिणामसे सुंदर मार्गको-पापक्रियासे निवृत्ति जिसका लक्षण है ऐसे भेदोपचार-रत्नत्रयात्मक और अभेदोपचार-रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञ-वीतरागके मार्गको-निंदते हैं, उन स्वरूपविकल (स्वरूपप्राप्ति रहित) जीवोंकें कुहेतु-कुदृष्टांतयुक्त कुतर्कवचन सुनकर जिनेश्वरप्रणीत शुद्धरत्नत्रयमार्गके प्रति, हे भव्य ! अभक्ति नहीं करना, परंतु भक्ति कर्तव्य है।
[अब इस १८६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] देहसमूहरूपी वृक्षपंक्तिसे जो भयंकर है, जिसमें दुःखपरंपरा-रूपी जंगली पशु (बसते ) हैं, अति कराल कालरूपी अग्नि जहाँ सबका भक्षण करती है, जिसमें बुद्धिरूपी जल ( ?) सूखता है और जो दर्शनमोहयुक्त जीवोंको अनेक कुनयरूपी मार्गोंके कारण अत्यंत दुर्गम है, उस संसार-अटवीरूपी विकट स्थलमें जैन दर्शन एक ही शरण है। ३०६।
? यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है। * दुर्गम = जिसे कठिनाईसे लाँघा जा सके ऐसा; दुस्तर। ( संसार-अटवीमें अनेक
कुनयरूपी मार्गोंमेंसे सत्य मार्ग ढूँढ़ लेना मिथ्यादृष्टियोंको अत्यंत कठिन है और इसलिये संसार-अटवी अत्यंत दुस्तर है।)
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