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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार ३६० ( अनुष्टुभ् ) त्रिलोकशिखरादूर्ध्वं जीवपुद्गलयोर्द्वयोः। नैवास्ति गमनं नित्यं गतिहेतोरभावतः।। ३०४ ।। णियमं णियमस्स फलं णिद्दिटुं पवयणस्स भत्तीए। पुव्वावरविरोधो जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा।। १८५ ।। नियमो नियमस्य फलं निर्दिष्टं प्रवचनस्य भक्त्या। पूर्वापरविरोधो यद्यपनीय पूरयंतु समयज्ञाः।। १८५ ।। शास्त्रादौ गृहीतस्य नियमशब्दस्य तत्फलस्य चोपसंहारोऽयम्। नियमस्तावच्छुद्धरत्नत्रयव्याख्यानस्वरूपेण प्रतिपादितः। तत्फलं परमनिर्वाणमिति प्रतिपादितम्। न कवित्वदात् प्रवचनभक्त्या प्रतिपादितमेतत् सर्वमिति यावत्। यद्यपि । [अब इस १८४ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते [ श्लोकार्थ:-] गतिहेतुके अभावके कारण, सदा (अर्थात् कदापि ) त्रिलोकके शिखरसे ऊपर जीव और पुद्गल दोनोंका गमन नहीं ही होता। ३०४। गाथा १८५ अन्वयार्थ:-[ नियमः] नियम और [ नियमस्य फलं] नियमका फल [प्रवचनस्य भक्त्या] प्रवचनकी भक्तिसे [ निर्दिष्टम् ] दर्शाये गये। [यदि] यदि ( उसमें कुछ ) [ पूर्वापरविरोधः] पूर्वापर (आगेपीछे) विरोध हो तो [ समयज्ञाः ] समयज्ञ (आगमके ज्ञाता) [ अपनीय ] उसे दूर करके [ पूरयंतु] पूर्ति करना। टीका:-यह, शास्त्रके आदिमें लिये गये नियमशब्दका तथा उसके फलका उपसंहार प्रथम तो, नियम शुद्धरत्नत्रयके व्याख्यानस्वरूपमें प्रतिपादित किया गया; उसका फल परम निर्वाणके रूपमें प्रतिपादित किया गया। यह सब कवित्वके अभिमानसे नहीं किन्तु प्रवचनकी भक्तिसे प्रतिपादित किया गया है। यदि ( उसमें कुछ) जिनदेव-प्रवचन-भक्ति-बलसें नियम, तत्फल में कहे । यदि हो कहीं, समयज्ञ पूर्वापर विरोध सुधारिये ।। १८५।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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