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नियमसार
३५९
जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी। धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छति।।१८४ ।।
जीवानां पुद्गलानां गमनं जानीहि यावद्धर्मास्तिकः। धर्मास्तिकायाभावे तस्मात्परतो न गच्छंति।। १८४ ।।
अत्र सिद्धक्षेत्रादुपरि जीवपुद्गलानां गमनं निषिद्धम्।
जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं, विभावक्रिया षट्कापक्रमयुक्तत्वम; पुद्गलानां स्वभावक्रिया परमाणुगतिः, विभावक्रिया व्यणुकादिस्कन्धगतिः। अतोऽमीषां त्रिलोकशिखरादुपरि गतिक्रिया नास्ति, परतो गतिहेतोर्धर्मास्तिकायाभावात; यथा जलाभावे मत्स्यानां गतिक्रिया नास्ति। अत एव यावद्धर्मास्तिकायस्तिष्ठति तत्क्षेत्रपर्यन्तं स्वभावविभावगतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां गतिरिति।
गाथा १८४ अन्वयार्थ:-[ यावत् धर्मास्तिक:] जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक [ जीवानां पुद्गलानां ] जीवोंका और पुद्गलोंका [ गमनं ] गमन [ जानीहि ] जान; [धर्मास्तिकायाभावे ] धर्मास्तिकायके अभावमें [ तस्मात् परतः ] उससे आगे [ न गच्छंति ] वे नहीं जाते।
टीका:-यहाँ, सिद्धक्षेत्रसे ऊपर जीव-पुद्गलोंके गमनका निषेध किया है।
जीवोंकी स्वभावक्रिया सिद्धिगमन (सिद्धक्षेत्रमें गमन) है और विभावक्रिया ( अन्य भवमें जाते समय) छह दिशामें गमन है; पुद्गलोंकी स्वभावक्रिया परमाणुकी गति है और विभावक्रिया द्वि-अणुकादि स्कंधोंकी गति है। इसलिये इनकी (जीव-पुद्गलोंकी) गतिक्रिया त्रिलोकके शिखरसे ऊपर नहीं है, क्योंकि आगे गतिहेतु (गतिके निमित्तभूत) धर्मास्तिकायका अभाव है; जिसप्रकार जलके अभावमें मछलियोंकि गतिक्रिया नहीं होती उसीप्रकार। इसीसे, जहाँ तक धर्मास्तिकाय है उस क्षेत्र तक स्वभावगतिक्रिया और विभावगतिक्रियारूपसे परिणत जीव-पुद्गलोंकी गति होती है।
* द्वि-अणुकादि स्कंध = दो परमाणुओंसे लेकर अनंत परमाणुओंके बने हुए स्कंध ।
जानो वहीं तक जीव पुद्गल-गति, जहाँ धर्मास्ति है। धर्मास्तिकाय-अभावमें आगे गमनकी नास्ति है ।। १८४।।
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