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नियमसार
३४१
इह हि ज्ञानिनो बंधाभावस्वरूपमुक्तम्।
सम्यग्ज्ञानी जीवः क्वचित् कदाचिदपि स्वबुद्धिपूर्वकं वचनं न वक्ति स्वमनःपरिणामपूर्वकमिति यावत्। कुतः ? अमनस्काः केवलिनः इति वचनात्। अत: कारणाज्जीवस्य मनःपरिणतिपूर्वकं वचनं बंधकारणमित्यर्थः, मनःपरिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति; ईहापूर्वं वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मक: समस्तजनहृदयाह्वादकारणम्; ततः सम्यग्ज्ञानिनो बंधाभाव इति।
[तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीको ( केवलज्ञानीको) [ हि] वास्तवमें [बंधः न ] बंधका अभाव है।
टीका:-यहाँ वास्तवमें ज्ञानीको ( केवलज्ञानीको ) बंधके अभावका स्वरूप कहा है।
सम्यग्ज्ञानी ( केवलज्ञानी) जीव कहीं कभी स्वबुद्धिपूर्वक अर्थात् स्वमन-परिणामपूर्वक वचन नहीं बोलता। क्यों ? 'अमनस्काः केवलिन: (केवली मनरहित है)' ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे। इस कारणसे (ऐसा समझना कि)-जीवको मनपरिणतिपूर्वक वचन बंधका कारण है ऐसा अर्थ है और मनपरिणतिपूर्वक वचन तो केवलीको होता नहीं है; (तथा) इच्छापूर्वक वचन ही साभिलाषस्वरूप जीवको बंधका कारण है और केवलीके मुखारविंदसे निकली हुई, समस्त जनोंके हृदयको आह्लादके कारणभूत दिव्यध्वनि तो अनिच्छात्मक ( इच्छा-रहित ) होती है; इसलिये सम्यग्ज्ञानीको ( केवलज्ञानीको ) बंधका अभाव है।
[अब इन १७३–१७४ वीं गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं:]
* साभिलाषस्वरूप = जिसका स्वरूप साभिलाष (इच्छायुक्त) हो ऐसे।
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