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शुद्धोपयोग अधिकार
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तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवै:
'ज्ञानाद्भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन। ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः।।"
तथा हि
( मंदाक्रांता) आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत् ताभ्यां युक्तः स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम्। संज्ञाभेदादघकुलहरे चात्मनि ज्ञानदृष्टयो: भेदो जातो न खलु परमार्थेन वयुष्णवत्सः।। २७८ ।।
इसीप्रकार श्री महासेनपंडितदेवने ( श्लोक द्वारा) कहा है कि :
" [ श्लोकार्थ:-] आत्मा ज्ञानसे ( सर्वथा) भिन्न नहीं है, (सर्वथा) अभिन्न नहीं है, कथंचित् भिन्नाभिन्न है; "पूर्वापरभूत जो ज्ञान सो वह आत्मा है ऐसा कहा है।"
और (इस १६२ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं):
[ श्लोकार्थ:-] आत्मा ( सर्वथा) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार (सर्वथा) दर्शन भी नहीं है; वह उभययुक्त (ज्ञानदर्शनयुक्त) आत्मा स्वपर विषयको अवश्य जानता है और देखता है। अघसमूहके (पापसमूहके) नाशक आत्मामें और ज्ञानदर्शनमें संज्ञाभेदसे भेद उत्पन्न होता है (अर्थात् संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे उनमें उपरोक्तनुसार भेद है), परमार्थसे अग्नि और उष्णताकी भाँति उनमें (-आत्मामें और ज्ञानदर्शनमें ) वास्तवमें भेद नहीं है (-अभेदता है)। २७८ ।
* पूर्वापर = पूर्व और अपर; पहलेका और बादका।
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