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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ३२१ ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम्। न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात्।। १६२ ।। पूर्वसूत्रोपात्तपुर्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्तिरियम्। केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनं भिन्नमेव। परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति चेत् सह्यविंध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत्। आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव, निराधारत्वात् तस्य ज्ञानस्य शून्यतापत्तिरेव, अथवा यत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्रव्यं सर्वं चेतनत्वमापद्यते अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतन: पदार्थः इति महतो दूषणस्यावतार:। तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यते हे शिष्य तर्हि दर्शनमपि न केवलमात्मगतमित्यभिहितम्। तत: खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्तहृदयं ज्ञान- दर्शनयो: कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति। गाथा १६२ अन्वयार्थ:-[ ज्ञानं परप्रकाशं] यदि ज्ञान ( केवल ) परप्रकाशक हो [तदा] तो [ ज्ञानेन ] ज्ञानसे [ दर्शनं] दर्शन [ भिन्नम् ] भिन्न सिद्ध होगा, [ दर्शनम् परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत (परप्रकाशक) नहीं है ऐसा ( पूर्व सूत्रमें ) वर्णन किया गया है। टीका:-यह, पूर्व सूत्रमें (१६१ वी गाथामें) कहे हुए पूर्वपक्षके सिद्धांत संबंधी कथन यदि ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो इस परप्रकाशनप्रधान (परप्रकाशक) ज्ञानसे दर्शन भिन्न ही सिद्ध होगा; (क्योंकि) सह्याचल और विंध्याचलकी भाँति अथवा गंगा और श्रीपर्वतकी भाँति, परप्रकाशक ज्ञानको और आत्मप्रकाशक दर्शनको संबंध किस प्रकार होगा ? जो आत्मनिष्ठ (-आत्मामें स्थित) है वह तो दर्शन ही है। और उस ज्ञानको तो, निराधारपनेके कारण (अर्थात् आत्मारूपी आधार न रहनेसे), शून्यताकी आपत्ति ही आयेगी: अथवा तो जहाँ-जहाँ ज्ञान पहुँचेगा ( अर्थात् जिस-जिस द्रव्यको ज्ञान पहुँचेगा) वे-वे सर्व द्रव्य चेतनताको प्राप्त होंगे, इसलिये तीन लोकमें कोई अचेतन पदार्थ सिद्ध नहीं होगा वह महान दोष प्राप्त होगा। इसीलिये ( उपरोक्त दोषके भयसे), हे शिष्य! ज्ञान केवल परप्रकाशक नहीं है ऐसा यदि तू कहे, तो दर्शन भी केवल आत्मगत (स्वप्रकाशक) नहीं है ऐसा भी (उसमें साथ ही) कहा जा चुका है। इसलिये वास्तवमें सिद्धांतके हार्दरूप ऐसा यही समाधान है कि ज्ञान और दर्शनको कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना है ही। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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