________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
३०९
परमावश्यकाधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम्।
स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयपरमावश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थकरपरमदेवादय: स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्तिमध्यारूढाः सन्तः केवलिन: सकलप्रत्यक्षज्ञानधरा: परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात जाताश्चेति।
( शार्दूलविक्रीडित) स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिन: प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः। तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्तिस्पृहो निस्पृहः स स्यात् सर्वजनार्चितांघ्रिकमलः पापाटवीपावकः।। २७० ।।
[प्रतिपद्य च ] प्राप्त करके [ केवलिनः जाताः ] केवली हुए।
टीका:-यह, परमावश्यक अधिकारके उपसंहारका कथन है।
स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप ऐसा जो बाह्य-आवश्यकादि क्रियासे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय-परमावश्यक-साक्षात् अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी) स्त्रीके अनंग (अशरीरी) सुखका कारण-उसे करके, सर्व पुराण पुरुष-कि जिनमेंसे तीर्थंकर-परमदेव आदि स्वयंबुद्ध हुए और कुछ बोधितबुद्ध हुए वे-अप्रमत्तसे लेकर सयोगीभट्टारक तकके गुणस्थानोंकी पंक्तिमें आरूढ़ होते हुए, परमावश्यकरूप आत्माराधनाके प्रसादसे केवलीसकलप्रत्यक्षज्ञानधारी-हुए।
[अब इस निश्चय-परमावश्यक अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] पहले जो सर्व पुराण पुरुष-योगी-निज आत्माकी आराधनासे समस्त कर्मरूपी राक्षसोंके समूहका नाश करके विष्णु और जयवंत हुए ( अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाले जिन हुए), उन्हें जो मुक्तिकी स्पृहावाला निःस्पृह जीव अनन्य मनसे नित्य नमन करता है, वह जीव पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान है और और उसके चरणकमलको सर्व जन पूजते हैं। २७०।
* विष्णु = व्यापक। ( केवली भगवानका ज्ञान सर्वको जानता है इसलिये उस अपेक्षासे
उन्हें सर्व-व्यापक कहा जाता है।)
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com