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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-परमावश्यक अधिकार ३०८ (शालिनी) अस्मिन् लोके लौकिकः कश्चिदेक: लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्। गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्तसंगो ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति।। २६८ ।। (मंदाक्रांता) त्यक्त्वा संगं जननमरणातंकहेतुं समस्तं कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम्। स्थित्वा शक्त्या सहजपरमानंदनिर्व्यग्ररूपे क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः ।। २६९ ।। सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण। अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा।। १५८ ।। सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा। अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः।। १५८ ।। [ श्लोकार्थ:-] इस लोकमें कोई एक लौकिक जन पुण्यके कारण धनके समूहको पाकर, संगको छोड़कर गुप्त होकर रहता है; उसीकी भाँति ज्ञानी ( परके संगको छोड़कर गुप्तरूपसे रहकर ) ज्ञानकी रक्षा करता हैं। २६८। [श्लोकार्थ:-] जन्ममरणरूप रोगके हेतुभूत समस्त संगको छोड़कर, हृदयकमलमें 'बुद्धिपूर्वक पूर्णवैराग्यभाव करके, सहज परमानंद द्वारा जो अव्यग्र (अनाकुल) हैं ऐसे निज रूपमें (अपनी) शक्तिसे स्थित रहकर, मोह क्षीण होने पर, हम लोकको सदा तृणवत् देखते हैं। २६९ । गाथा १५८ अन्वयार्थ:-[ सर्वे ] सर्व [ पुराणपुरुषाः ] पुराण पुरुष [ एवम् ] इसप्रकार [ आवश्यक च] आवश्यक [ कृत्वा ] करके , [ अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं ] अप्रमत्तादि स्थानको १। बुद्धिपूर्वक = समझपूर्वक; विवेकपूर्वक; विचारपूर्वक। २। शक्ति = सामर्थ्य; बल; वीर्य; पुरुषार्थ। यों सर्व पौराणिक पुरुष आवश्यकोंकी विधि धरी । पाकर अरे अप्रमत्त स्थान हुए नियत प्रभु केवली ।। १५८ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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