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नियमसार
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारितं । ते दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ।। १५२ ।।
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम् । तेन तु विरागचरिते श्रमणोभ्युत्थितो भवति ।। १५२ ।।
परमवीतरागचारित्रस्थितस्य परमतपोधनस्य स्वरूपमत्रोक्तम्।
यो हि विमुक्तैहिकव्यापारः साक्षादपुनर्भवकांक्षी महामुमुक्षुः परित्यक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वान्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति ।
कुबुद्धियोंको होता है; संसाररूपी रमणीको प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियोंको नहीं होता । २६१ ।
गाथा १५२
अन्वयार्थः[ प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां ] प्रतिक्रमणादि क्रियाको - [ निश्चयस्य चारित्रम् ] निश्चयके चारित्रको–[ कुर्वन् ] (निरंतर) करता रहता है [ तेन तु ] इसलिये [श्रमणः] वह श्रमण [ विरागचरिते ] वीतराग चारित्रमें [ अभ्युत्थितः भवति ] आरूढ़ है।
टीका:- यहाँ परम वीतराग चारित्रमें स्थित परम तपोधनका स्वरूप कहा है।
जिसने ऐहिक व्यापार ( सांसारिक कार्य ) छोड़ दिया है जो साक्षात् अपुनर्भवका (मोक्षका) अभिलाषी महामुमुक्षु सकल इंद्रियव्यापारको छोड़ा होनेसे निश्चय-प्रतिक्रमणादि सत्क्रियाको करता हुआ स्थित है ( अर्थात् निरंतर करता है), वह परम तपोधन उस कारणसे निजस्वरूपविश्रांतिलक्षण परमवीतराग चारित्रमें स्थित है ( अर्थात् वह परम श्रमण, निश्चयप्रतिक्रमणादि निश्चयचारित्रमें स्थित होनेके कारण, जिसका लक्षण निज स्वरूपमें विश्रांति है ऐसे परमवीतराग चारित्रमें स्थित है ) ।
[अब इस १५२ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं:]
प्रतिक्रमण आदिक्रिया तथा चारित्रनिश्चय आचरे ।
अतएव मुनि वह वीतराग चरित्रमें स्थिरता करे ।। १५२ ।।
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