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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-परमावश्यक अधिकार २९८ इह हि साक्षादन्तरात्मा भगवान् क्षीणकषायः। तस्य खलु भगवतः क्षीणकषायस्य षोडशकषायाणामभावात् दर्शनचारित्रमोहनीयकर्मराजन्ये विलयं गते अत एव सहजचिद्विलासलक्षणमत्यपूर्वमात्मानं शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वयेन नित्यं ध्यायति। आभ्यां ध्यानाभ्यां विहीनो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि। (वसंततिलका) कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधर्मशुक्लध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ। ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं पूर्वोक्तयोगिनमहं शरणं प्रपद्ये।। २६० ।। किं च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते ( अनुष्टुभ् ) बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्पः कुधियामयम्। सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः।। २६१ ।। यहाँ (इस लोकमें) वास्तवमें साक्षात् अंतरात्मा भगवान क्षीणकषाय है। वास्तवमें उन भगवान क्षीणकषायको सोलह कषायोंका अभाव होनेके कारण दर्शन-मोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओंके दल नष्ट हुए हैं इसलिये वे (भगवान क्षीणकषाय) सहजचिविलासलक्षण अति-अपूर्व आत्माके शुद्धनिश्चय-धर्मध्यान और शुद्धनिश्चयशुक्लध्यान इन दो ध्यानों द्वारा नित्य ध्याते हैं। इस दो ध्यानों रहित द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमण बहिरात्मा है ऐसा हे शिष्य! तू जान। [अब यहाँ टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:] [ श्लोकार्थ:-] कोई मुनि सतत-निर्मल धर्मशुक्ल-ध्यानामृतरूपी समरसमें सचमुच वर्तता है; (वह अंतरात्मा है;) इन दो ध्यानोंसे रहित तुच्छ मुनि बहिरात्मा है। मैं पूर्वोक्त ( समरसी) योगीकी शरण लेता हूँ। २६०। और (इस १५१ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज द्वारा श्लोक द्वारा) केवल शुद्धनिश्चयनयका स्वरूप कहा जाता है: [ श्लोकार्थ:-] (शुद्ध आत्मतत्त्वमें ) बहिरात्मा और अंतरात्मा ऐसा यह विकल्प * सहजचिविलासलक्षण = जिसका लक्षण (-चिह्न अथवा स्वरूप) सहज चैतन्यका विलास है ऐसे। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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