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नियमसार
२३१
किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ।।११७ ।।
किं बहुना भणितेन तु वरतपश्चरणं महर्षीणां सर्वम्। प्रायश्चित्तं जानीह्यनेककर्मणां क्षयहेतुः ।। ११७ ।।
निश्चयप्रायश्चित्तम्।
इह हि परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वराणां एवंसमस्ताचरणानां परमाचरणमित्युक्तम्।
बहुभिरसत्प्रलापैरलमलम्। पुनः सर्वं निश्चयव्यवहारात्मकपरमतपश्चरणात्मकं परमजिनयोगिनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरवशेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमिति हे शिष्य त्वं जानीहि।
गाथा ११७ अन्वयार्थ:-[ बहुना ] बहुत [ भणितेन तु] कहनेसे [ किम् ] क्या ? [अनेककर्मणाम् ] अनेक कर्मोंके [क्षयहेतुः ] क्षयका हेतु ऐसा जो [ महर्षीणाम् ] महर्षियोंका [ वरतपश्चरणम् ] उत्तम तपश्चरण [ सर्वम् ] वह सब [ प्रायश्चित्तं जानीहि ] प्रायश्चित्त जान।
टीका:-यहाँ ऐसा कहा है कि परम तपश्चरणमें लीन परम जिनयोगीश्वरोंको निश्चयप्रायश्चित है; इसप्रकार निश्चयप्रायश्चित्त समस्त आचरणोंमें परम आचरण है ऐसा कहा
है।
बहुत असत् प्रलापोंसे बस होओ, बस होओ। निश्चयव्यवहारस्वरूप परमतपश्चरणात्मक ऐसा जो परम जिनयोगीयोंको अनादि संसारसे बँधे हुए द्रव्य-भावकर्मों के निरवशेष विनाशक कारण वह सब शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा, हे शिष्य! तू जान।।
[अब इस ११७ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं:]
बहु कथन से जो अनेकों कर्म क्षय का हेतु है । उत्तम तपश्चर्या ऋषिकी सर्व प्रायश्चित है ।। ११७।।
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