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परम-आलोचना अधिकार
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(मंदाक्रांता) अक्षय्यान्तर्गुणमणिगणः शुद्धभावामृताम्भोराशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहःकलंकः। शुद्धात्मा यः प्रहतकरणग्रामकोलाहलात्मा ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति।। १६३ ।।
(वसंततिलका) संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रै१ःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने। लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानी यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात्।। १६४ ।।
(वसंततिलका) मुक्तः कदापि न हि याति विभावकायं तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात्। तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि।। १६५ ।।
[ श्लोकार्थ:-] जो अक्षय अंतरंग गुणमणियोंका समूह है, जिसने सदा विशदविशद (अत्यंत निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृतके समुद्रमें पापकलंकोंको धो डाला है तथा जिसने इंद्रियसमूहके कोलाहलको नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञानज्योति द्वारा अंधकारदशाका नाश करके अत्यंत प्रकाशमान होता है। १६३।
[ श्लोकार्थ:-] संसारके घोर, *सहज इत्यादि रौद्र दुःखादिकसे प्रतिदिन परितप्त होनेवाले इस लोकमें यह मुनिवर समताके प्रसादसे शमामृतमय जो हिम-राशि (बर्फका ढेर) उसे प्राप्त करते हैं। १६४।
[श्लोकार्थ:-] मुक्त जीव विभावसमूहको कदापि प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसने उसके हेतुभूत सुकृत और दुष्कृतका नाश किया है। इसलिये अब सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्मजालको छोड़कर एक मुमुक्षुमार्गमें जाता हूँ ( अर्थात् मुमुक्षु जिस मार्ग पर चले हैं उसी
* सहज = साथमें उत्पन्न अर्थात् स्वाभाविक। [ निरंतर वर्तता आकुलतारूपी दुःख तो
संसारमें स्वाभाविक ही है। अर्थात् संसार स्वभावसे ही दुःखमय है तदुपरान्त तीव्र असाता आदिका आश्रय करनेवाले घोर दुःखोंसे भी संसार भरा है।]
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